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________________ (14) पुण्य की अभिवृद्धि से पाप का क्षय प्राणी जितना-जितना पाप से, बुराई के दोष से बचता है, पाप का, दोष का, बुराई का त्याग करता जाता है उतनी-उतनी उसकी आत्मा विशुद्ध होती जाती है। जितनी-जितनी आत्मा की विशुद्धि बढ़ती जाती है उतना-उतना पाप का क्षय होता जाता है और पुण्य की अभिवृद्धि होती जाती है। अत: सबसे बड़ा पुण्य है बुराई से बचना अर्थात् अपने राग-द्वेष, विषय-कषाय आदि दोषों का, बुराईयों का त्याग करना तथा दूसरों का बुरा न चाहना, बुरा न कहना, बुराई न करना। यह नियम है कि जो कुछ भी बुरा नहीं करता है उससे जो कुछ भी होता है वह भला ही होता है। भलाई करना ही पुण्य है। भलाई वही कर सकता है जो बुराई नहीं करता है। बुराई नहीं करना तथा भलाई करना ये दोनों एक सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। इनमें अंतर यह है कि बुराई न करने में तो सब समर्थ एवं स्वाधीन हैं, क्योंकि उसके लिए किसी वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति की अपेक्षा नहीं होती है, परंतु किसी का भला करने, हित करने के लिए वस्तु, शरीर आदि की आवश्यकता होती है। अत: क्रियात्मक भलाई व सेवा सीमित ही हो सकती है। कोई भी व्यक्ति कितना ही सम्पन्न हो, वस्तुएँ देकर सारे समाज की गरीबी नहीं मिटा सकता, चिकित्सालय खोलकर सब रोगियों की चिकित्सा नहीं करवा सकता। विद्यालय खोलकर सबको प्रवेश नहीं दे सकता। धर्मशालाएँ बनवाकर सबको स्थान नहीं दे सकता। किंतु भावात्मक भलाई सबके प्रति हो सकती है। सबका भला
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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