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--- पुण्य-पाप तत्त्व के साथ स्थापित या स्थित होना ही कर्म-बंध है और ये कर्म जितने काल तक स्थित रहेंगे वह ही स्थिति बंध का घनिष्ठ संबंध है और स्थिति बंध होता है कषाय से। इस दृष्टि से कर्म-बंध का प्रधान कारण कषाय है।
___"गोयमा! चउहिं ठाणेहिं अट्ठ कम्म पयडिओ बंधसु, बंधति, बंधिस्सति तंजहा-कोहेणं, माणेणं मायाए, लोभेणं। दं. 1-24 एवं नेरइया जाव वेमाणिया।"
___-पन्नवणा पद 14, द्रव्यानुयोग पृष्ठ 1093 हे गौतम! जीवों ने चार कारणों से आठ कर्म प्रकृतियों का बंध किया है, करते हैं और करेंगे, यथा क्रोध से, मान से, माया से और लोभ से। इसी प्रकार नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक 24 दण्डकों में जानना चाहिये।
वस्तुतः कषाय ही बंध का कारण है, योग नहीं। योग से केवल कर्मों के दलिकों (प्रदेशों) का अर्जन होता है, बंध नहीं। क्योंकि जिन कर्मों का स्थिति बंध नहीं होता उनका न प्रकृति बंध होता है, न प्रदेश-बंध और न अनुभाग बंध। ये तीनों प्रकार के बंध स्थिति बंध होने पर ही संभव हैं।
यह नियम है कि कर्म जितने काल तक आत्मा में स्थित रहते हैं तब तक ही आत्मा कर्मों से बंधी रहती है या कर्म आत्मा से बँधे रहते हैं। कर्मों का आत्मा के साथ बँधे रहना ही स्थिति बंध है। कर्मों का आत्मा में स्थित न रहना, आत्मा से अलग हटना ही कर्म का मिटना है-कर्म का क्षय है। अत: कर्म का बंध व क्षय कर्म की स्थिति के बंध और क्षय पर निर्भर करता है। जैसा कि वीरसेनाचार्य ने जयधवला टीका में लिखा है
पुव्वसंचियस्स कम्मस्स कुदो खओ? द्विदिक्खयादो।।
ट्ठिदिक्खयो कुदो? कसायक्खयादो। उत्तं चकम्मं जो अणिमित्तं बज्झई कम्माट्ठिदी कसायवसा। ताणमभावे बंधट्ठिदीणभावा सडइ संतं।।
-कसायापाहुड, प्रथम पुस्तक, पृष्ठ 57