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-- पुण्य-पाप तत्त्व
124 के लिए मिली है। उससे सुख भोगना, विषय-कषाय का सेवन करना अपना और जगत् का अहित करना है, जिसका साधक के जीवन में कोई स्थान ही नहीं है। उपलब्ध भौतिक सामग्री सम्पत्ति, देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि का सदुपयोग ही दया, दान आदि का क्रियात्मक रूप है। यह आत्मा को पवित्र करने वाला होने से इसे पुण्य भी कहा जाता है। जिसका फल तन, मन, इन्द्रिय आदि भौतिक उपलब्धियों के रूप में मिलता है। इनका उपयोग साधक अपने भोगोपभोग के लिए नहीं करता है। साधक इनका उपयोग अपने सुख-भोग के लिए न कर अपनी सामर्थ्य अनुसार देह, परिवार, परिजन, समाज, राष्ट्र एवं विश्व के हित के लिए अर्थात् पर-हित में सेवा रूप में करता है। साधक इनका उपयोग (सदुपयोग) करता है, उपभोग नहीं। अहितकर इनका दुरुपयोग है, भोग है, प्राप्त सामग्री नहीं, इसीलिए इन्हें अघाती कहा है।
प्राप्त सामग्री का सदुपयोग पुण्य है और दुरुपयोग पाप है। पुण्य से आत्मा का किसी भी प्रकार का अहित नहीं होता है। वीतराग अनन्त पुण्यात्मा व धर्मात्मा होते हैं, क्योंकि वे अनन्तदानी होते हैं। यदि 'दान' देना बुरा होता तो वीतराग होने पर अनंतदान की उपलब्धि कदापि नहीं होती और उसे क्षायिकलब्धि नहीं कहा जाता। अनन्त पुण्यात्मा वीतराग के लिए भौतिक सामग्री शरीर आदि का होना या न होना समान ही है। वह सदैव इससे असंग होता है, अत: पुण्य के फलस्वरूप मिली भौतिक सामग्री उसके लिए बंधन रूप नहीं है। वह भौतिक उपलब्धियों से निर्मित शरीर, परिस्थितियों व घटनाओं का ज्ञाता-द्रष्टा होता है, कर्ता-भोक्ता नहीं, अत: बंधन-मुक्त होता है। उसके लिए अघाती कर्म जली हुई रस्सी या भुने हुए चने के समान निःसत्त्व-निष्प्राण होते हैं, जो वीतराग का अहित करने में लेशमात्र भी समर्थ नहीं हैं। अत: पुण्य बुरा है, संसार में