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________________ ----115 अहिंसा, पुण्य और धर्म ----- मानवीय गुणों का ही उच्छेद कर देना है जो घोर अमानवता है। जिसका मानव जीवन में कोई स्थान ही नहीं है। इसी विषय में बहुश्रुत पं. रत्न श्री समर्थमलजी म.सा. से लेखक ने बूंदी (राजस्थान) में पृच्छा की थी- “महाराज! यह फरमाइये कि आगमों में पुण्य को हेय क्यों कहा गया है?" उत्तर में श्री बहुश्रुतजी महाराज ने फरमाया कि-"आगमों में पुण्य को कहीं भी हेय नहीं कहा गया है और न हम “पुण्य हेय है', ऐसा मानते हैं। जो शोभास्पद होता है।'' मुझे बहुश्रुतजी का यह कथन यथार्थ लगता है, क्योंकि पुण्य यदि हेय होता और साधक के लिए त्याज्य होता तो आगमों में जैसे पाप के क्षय की साधना बताई गई हैं उसी प्रकार पुण्य क्षय की साधना भी बताई गई होती। परंतु आगम में पुण्य क्षय का कोई उपाय या साधना नहीं बतायी गयी है। आगम में अहिंसा, संयम और तपरूप धर्म-साधना अथवा ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप रूप साधना अथवा अन्य जो भी साधनाएँ बताई गई हैं उनसे पुण्य का क्षय नहीं होता है, प्रत्युत जैसे-जैसे साधक साधना मार्ग में आगे बढ़ता जाता है, पुण्य के अनुभाग का उत्कर्ष अवश्य होता है। इसीलिये वीतराग केवली अनन्त पुण्यवान होता है। यदि मुक्ति के लिए पुण्य क्षय करना आवश्यक माना जाये तो फिर पुण्य क्षय करने के दो ही मार्ग शेष रह जाते हैं-1. पुण्य का उदय में आकर स्वत: क्षय होना और 2. पाप की वृद्धि रूप संक्लेश भाव से पुण्य प्रकृतियों का पाप प्रकृतियों में संक्रमण होना। प्रथम मार्ग निसर्ग पर निर्भर करता है। उसमें साधक को कुछ नहीं करना होता है। दूसरा मार्ग पापवृद्धि का है जो साधक के लिए घातक है, अत: त्याज्य ही है। तात्पर्य यह है कि पुण्य साधक के लिए बाधक या त्याज्य नहीं है और न पुण्य क्षय का साधना से कोई संबंध ही है।
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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