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________________ 112---- ---- पुण्य-पाप तत्त्व ___सामान्य जन तो दया, दान, सेवा, परोपकार आदि सद्प्रवृत्तियों को अर्थात् शुभ योग को धर्म ही मानते हैं, परंतु कुछ बुद्धिवादी यह युक्ति देते हैं कि दया, रक्षा, करुणा, अनुग्रह, वात्सल्य, सेवा, परोपकार, मैत्री, अनुकंपा आदि अहिंसा के विधिपरक रूप अर्थात् शुभ योग प्रवृत्तियुक्त होते हैं, अत: ये पुण्य बंध के कारण हैं, धर्म नहीं हैं और बंध संसार में भ्रमण कराता है, रुलाता है, अत: बुरा है, हेय है, त्याज्य है। अत: पुण्य मुक्तिप्राप्ति में बाधक होने से धर्म नहीं है। धर्म तो निवृत्ति रूप ही होता है। लेकिन उनका यह कथन युक्तियुक्त नहीं है, कारण कि जीवन का अध्ययन करने से ऐसा विदित होता है कि प्रवृत्ति दो प्रकार की है-1. दुष्प्रवृत्ति और 2. सद्प्रवृत्ति। हिंसा, झूठ, चोरी, विषय-कषाय आदि दुष्प्रवृत्तियाँ सर्वथा त्याज्य ही हैं। दया, दान, करुणा, वात्सल्य आदि सद्प्रवृत्तियाँ हैं। ये आत्मा को पवित्र करने वाली हैं। अत: इन्हें धर्म कहा जाता है तथा पुण्य भी कहा जाता है। इन प्रवृत्तियों का भावात्मक रूप त्यागमय होने से धर्म है, कारण कि जहाँ त्याग है, वहाँ धर्म है तथा इन प्रवृत्तियों का क्रियात्मक रूप स्वपर हितकारी होने से ये पुण्य रूप हैं। पुण्य और धर्म परस्पर सहयोगी, सहायक व पूरक हैं। सद्प्रवृत्तियों के क्रियात्मक रूप पुण्य से त्याग रूप धर्म सजीव, प्राणवान, स्थायी व सबल होता है और त्याग रूप धर्म से क्रियात्मक रूप पुण्य पुष्ट होता है। किसी का मन से भला या हित सोचना रूप प्रवृत्ति तथा वचन और काया से हित करने रूप दया, दान, रक्षा आदि विधिपरक प्रवृत्तियों को ठाणांग सूत्र के नवम ठाणे में पुण्य में गिनाया गया है। दया, रक्षा आदि को प्रश्नव्याकरण सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कंध में अहिंसा में गिनाया है और अहिंसा को वहाँ संवर में ग्रहण किया गया है। संवर धर्म रूप ही होता है।
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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