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________________ क्षयोपशमादि भाव, पुण्य और धर्म ------ ---------- 105 की अभिव्यक्ति होती है। अत: क्षायोपशमिक भाव सम्यग्ज्ञान-दर्शनचारित्र की भूमिका है। यह निश्चित है कि क्षायोपशमिक भाव का भी बड़ा महत्त्व है, क्योंकि सामान्य धर्म के अभाव में विशेष धर्म संभव ही नहीं है। इसीलिये क्षायोपशमिक भाव को मुक्ति का हेतु कहा है। __मिथ्यात्वी जीव के दया, दान, करुणा एवं वात्सल्य भाव क्षयोपशम भाव रूप होते हैं। इनसे उसके उदयमान कषाय या राग-द्वेषमोह गलते हैं, क्षय व क्षीण होते हैं। इसलिये इसे शुभ योग रूप संवर व सामान्य निर्जरा का हेतु कहा जा सकता है। परंतु यह क्षयोपशमभाव रूप ही होता है क्षायिक या उपशम भाव रूप नहीं होता है। क्योंकि इसके साथ रहे मिथ्यात्व के कारण सत्ता में रहे हुये कषाय रूप राग-द्वेष मोह की जड़ का इससे उन्मूलन व क्षय नहीं होता है। इस दृष्टि से इसे आत्यंतिक कर्म क्षय रूप विशेष धर्म की कोटि में नहीं गिनाया गया है। ऊपर जैसे धर्म के दो प्रकार कहे हैं यथा-1. सहज भाव से स्वतः होने वाला सामान्य धर्म और 2. विशेष विशुद्धि के लिए विशेष प्रत्यन से होने वाला विशेष धर्म। ऐसे ही निर्जरा के भी दो प्रकार कहे हैं-1. स्वत: होने वाली सहज कर्म-निर्जरा। इसे अकाम निर्जरा या सविपाक निर्जरा कहा जाता है तथा 2. कर्मों के विशेष क्षय के लिए तपश्चर्या आदि विशेष प्रयत्न से होने वाली विशेष निर्जरा, जिसे सकाम निर्जरा या अविपाक निर्जरा कहा जाता है। यह सम्यग्दर्शनपूर्वक, विषय-कषाय के त्याग से, स्वाध्याय, ध्यान आदि साधना से होती है। इन दो प्रकार की निर्जराओं में से तत्त्वज्ञान में दूसरी प्रकार की विशेष निर्जरा को ही निर्जरा तत्त्व में स्थान दिया है जो बाह्य व आभ्यंतर तप से होती है। मिथ्यात्वी जीव भी अनशन, विनय, वैयावृत्त्य, ध्यान आदि
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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