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--- पुण्य-पाप तत्त्व
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दोष का ही दूसरा नाम राग-द्वेष रूप कषाय है। कषाय चार प्रकार का है-1. अनंतानुबंधी 2. अप्रत्याख्यानावरण 3. प्रत्याख्यानावरण और 4. संज्वलन। सम्यक्त्व के अभाव में अनंतानुबंधी कषाय के अनुभाग की न्यूनता को विशुद्धि या पुण्य व अनुभाग की वृद्धि को संक्लेश या पाप कहा जाता है। कषाय की न्यूनता से चेतना के दर्शन गुण रूप संवेदन शक्ति के आवरण में व ज्ञान गुण के आवरण में कमी हो जाती है, जिससे इन गुणों की अभिव्यक्ति में वृद्धि होती है। यही विकास पुण्य तत्त्व का द्योतक है। यही कारण है कि विशुद्धि की वृद्धि से बाह्य जगत् से संबंध रखने वाले अघाती कर्म की वेदनीय, आयु, नाम, गोत्र की अधिकांश पाप प्रकृतियों का बंध रुक जाता है और गति, जाति, संहनन, संस्थान, आयु, गोत्र आदि की पुण्य प्रकृतियों के अनुभाग का सर्जन होता है।
जिस प्रकार अनंतानुबंधी के क्षय व उपशम से जो चेतना का शुद्ध स्वरूप प्रकट होता है, वह धर्म है। इसी प्रकार अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण व संज्वलन कषाय के क्षय या उपशम से चारित्र की विशुद्धि होती है वही धर्म कहा गया है। इन कर्मों के अनुभाग व स्थिति की कमी को धर्म नहीं कहा गया है।
उपर्युक्त धर्म की व्याख्या साधना की दृष्टि से है जो गुण के पूर्ण शुद्ध रूप विशुद्धि को लेकर कही गई है। अन्यथा तो आंशिक विशुद्धि भी स्वभाव को ही प्रगट करती है। अत: वह भी व्यावहारिक दृष्टि से धर्म ही है। इस दृष्टि से क्षयोपशम, शुभ प्रवृत्ति या पुण्य प्रवृत्ति भी धर्म ही है। धर्म की इन दोनों व्याख्याओं में विरोध या मौलिक भेद नहीं है। यह भेद केवल लक्ष्य व लाक्षणिक दृष्टि से है।
इसे लक्ष्यभेद इस रूप में कहा जा सकता है कि जो कार्य जिस