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________________ 100 पुण्य-पाप तत्त्व यहीं प्रश्न उठता है कि यदि क्षयोपशम भाव को धर्म माना जाये तो क्षयोपशम भाव तो मिथ्यात्वी के भी होता है। अत: उसके भी धर्म होना मानना होगा जबकि आगम में सम्यग्दर्शन के पश्चात् ही धर्म होना माना है सम्यग्दर्शन के पूर्व नहीं । इस प्रकार इन दोनों मान्यताओं में विरोध प्रतीत होता है। इसका समाधान क्या है ? उपर्युक्त प्रश्न मौलिक है। इसके समाधान के लिए व्यावहारिक एवं आगमिक तथा सामान्य एवं विशेष दृष्टि से विचार करना होगा। सामान्य दृष्टि गुण स्वभाव है, अत: धर्म है और दोष कृत्रिम है, अत: अधर्म है, पाप है। दोष की उत्पत्ति प्राणी की भूल से होती है, अत: दोष का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। इसे दूसरे शब्दों में कहें तो गुण की कमी का नाम ही दोष है। गुण का पूर्ण अभाव कभी नहीं होता, केवल कमी ही हो सकती है। यही कारण है कि कोई भी प्राणी कभी पूर्ण दोषी या पापी नहीं हो सकता। क्योंकि कोई पूर्ण दोषी या पापी हो जाये तो उसके गुण पूर्ण रूप से नष्ट हो जायेंगे, जिससे चेतन 'चेतन' न रहकर जड़ हो जायेगा, परंतु ऐसा कभी होता नहीं। प्रकारान्तर से कहें तो प्रत्येक प्राणी गुण दोष युक्त होता है। गुण जीव का स्वभाव है, उसकी उत्पत्ति नहीं होती । उत्पत्ति दोष की होती है । अत: निवृत्ति भी दोष की होती है। दोष की निवृत्ति से गुण की अभिव्यक्ति होती है उत्पत्ति नहीं, क्योंकि जिसकी उत्पत्ति होती है उसका विनाश अवश्य होता है । गुण का नाश कभी नहीं होता, उस पर आवरण आता है या अंतराय (अंतराल ) पड़ती है। गुण स्वभाव रूप होने से धर्म है और स्वभाव में कमी होना दोष है, जो अधर्म है। पहले कह आये हैं कि प्रत्येक प्राणी में आंशिक गुण व आंशिक दोष हैं। अत: प्रत्येक प्राणी में आंशिक धर्म व आंशिक अधर्म
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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