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________________ 94 -- ----- पुण्य-पाप तत्त्व अर्थ-माया कषाय को ऋजुभाव से जीते अर्थात् माया को जीतने से जीव ऋजुभाव को प्राप्त करता है। ऋजुता (सरलता) से जीव काया की सरलता, भावों की सरलता, भाषा (वचन) की सरलता और अविसंवादिता को प्राप्त करता है जिससे धर्म का आराधक होता है। काया की सरलता, भाव की सरलता, भाषा (वाणी) की सरलता तथा अविसंवादन योग शुभ नामकर्म के हेतु हैं। अशुभ नाम कर्म का उपार्जन गोयमा! कायअणुज्जयाए..."जाव विसंवायणजोगेणं पओगबंधे। -भगवती सूत्र 8.9 अर्थ-काया की वक्रता से, भाव की वक्रता से, भाषा की वक्रता से और विसंवाद योग से अशुभ नाम कर्म की प्रकृतियों का बंध होता है। उपर्युक्त आगम सूत्रों से स्पष्ट है कि अऋजुता से, वक्रता से अर्थात् माया कषाय के उदय से अशुभ नाम कर्म की प्रकृतियों का अर्जन (आस्रव) एवं बंध होता है तथा ऋजुता से, सरलता से अर्थात् माया कषाय की क्षीणता व कमी से शुभ नामकर्म की प्रकृतियों का उपार्जन होता है। उच्च गोत्र कर्म का उपार्जन गोत्र कर्म के दो भेद हैं-नीच गोत्र एवं उच्च गोत्र। इनमें से नीच गोत्र पाप प्रकृति है, जिसका उपार्जन (आस्रव) मद से अर्थात् मान कषाय के उदय से होता है तथा उच्च गोत्र पुण्य प्रकृति है जिसका उपार्जन मृदुता से अर्थात् मान कषाय के क्षय व कमी से होता है। जैसा कि कहा है माणं मद्दवया जिणे। -दशवैकालिक सूत्र, अध्ययन 8, गाथा 39
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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