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--- पुण्य-पाप तत्त्व
जहा महातलायस्स, सन्निरुद्ध जलागमे। उस्सिंचणाए तवणाए, कम्मेणं सोसणा भवे ।। एवं तु संजयस्सावि, पावकम्मनिरासवे। भवकोडी-संचियं कम्म, तवसा निज्जरिज्जइ।।
__-उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 30, गाथा 5-6 जिस प्रकार किसी बड़े तालाब में नये जल के आने को रोक देने पर पूर्व जल को उलीचने से एवं सूर्य के आतप से पहले का जल सूख जाता है, इसी प्रकार संयमी साधु के भी पाप कर्मों का आस्रव रुक जाने पर तप से करोड़ों भवों के कर्म निर्जरित-क्षीण हो जाते हैं। इन गाथाओं में तप से पाप कर्मों के क्षय व पापासव के निरोध का ही प्रतिपादन किया गया है, पुण्यास्रव के निरोध का नहीं। तवसाधुणइ पुराणपावगं, जुत्तो सया तवसमाहिए।
___ -दशवैकालिक 9.4.4 समाधि से युक्त साधक तप से पुराने पाप कर्मों का क्षय कर देता है। खवेंति अप्पाणममोह-दंसिणो, तवे रया संजम-अज्जवे गुणे। धुणंति पावाइं पुरे कडाई, णवाइं पावाइं ण ते करेंति।।
-दशवैकालिक सूत्र, अध्ययन 6, गाथा 68 मोह रहित होने में, संयम में, आर्जव, मार्दव आदि गुणों में और तप में निरत साधु पूर्वकृत पाप कर्मों को क्षय करता है व नवीन पाप कर्मों का बंध नहीं करता है। इस प्रकार साधक अपने अशुभ कर्मों का क्षय कर
देते हैं।
उपर्युक्त गाथा में संयम में, आर्जव आदि गुणों से अर्थात् कषाय की कमी से तथा तप से केवल पुराने पाप-कर्मों का क्षय एवं नये पाप कर्मों का बंध नहीं होना कहा गया है। यदि इनसे “पुण्य कर्मों का भी क्षय होना