SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 111
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 62 --- -- पुण्य-पाप तत्त्व अशुभ नाम कर्म की प्रकृतियों के बंध का हेतु है और इसके विपरीत अर्थात् मन, वचन, काया के योगों की सरलता रूप माया कषाय की कमी शुभ नाम कर्म की प्रकृतियों की हेतु है। इसी का प्रतिपादन भगवती सूत्र शतक 8 उद्देशक 9 में तथा उत्तराध्ययन सूत्र के अध्ययन 29 में किया गया है। -तत्त्वार्थ सूत्र अध्ययन 6, सूत्र 21-22 गोत्रकर्म-गोत्र कर्म की दो प्रकृतियाँ हैं। इनमें से उच्च गोत्र शुभ और नीच गोत्र अशुभ है। इनके बंध के हेतु हैंपरात्मनिंदाप्रशंसे सदसद्-गुणाच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य।। तद्विपर्ययो नीचैर्वृत्त्यनुत्सेको चोत्तरस्य। परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, सद्गुणों का आच्छादन, असद्गुणों का प्रकाशन अर्थात् मान कषाय नीच गोत्र के बंध का हेतु है और इसके विपरीत अर्थात् मान कषाय की कमी उच्च गोत्र के बंध की हेतु है। भगवती सूत्र शतक 8 उद्देशक 9 में कहा गया है कि जाति, कुल, बल, श्रुत आदि का मद, अभिमान करने से नीच गोत्र का और मद न करने से अर्थात् निरभिमानता-विनम्रता से उच्च गोत्र का बंध होता है। -तत्त्वार्थ सूत्र अध्ययन 6, सूत्र 24-25 वंदणएण नीयागोयं कम्मं खवेइ, उच्चागोयं कम्मं निबंधइ।। अर्थात् वंदना से जीव नीच गोत्र कर्म का क्षय करता है और उच्च गोत्र कर्म का बंध करता है। -उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन 29, सूत्र 10 तात्पर्य यह है कि क्रोध, मान, माया व लोभ कषाय से क्रमश: वेदनीय, गोत्र, नाम व आयु इन चारों कर्मों की अशुभ (पाप) प्रकृतियों का बंध होता है। इन कषायों की कमी से इन कर्मों की शुभ प्रकृतियों का बंध होता है। क्रोध कषाय की कमी से क्षमा व अनुकंपा गुण प्रकट होता
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy