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________________ तत्त्वज्ञान और पुण्य-पाप आस्रव तत्त्व का आधार पाप है, 59 पुण्य नहीं आस्रव तत्त्व-कर्मों के आने को आस्रव कहते हैं। पुण्य एवं पाप के आस्रव के संबंध में कहा है पुण्णासव भूदा अणुकंपा सुद्धओ व उवजोओ। विवरीओ पावस्स हु आसवहेउं वियाणाहिं । । -भगवती आराधना गाथा 1828, कसाय पाहुड, जय धवला टीका, पुस्तक 1, पृष्ठ 96 की अनुकंपा अर्थात् सद्प्रवृत्तियों से और शुद्धोपयोग अर्थात् परिणामों शुद्धता से पुण्य कर्मों का आस्रव होता है। इसके विपरीत पाप के आस्रव के हेतु हैं अर्थात् अशुद्धोपयोग, परिणामों की अशुद्धता एवं निर्दयता व दुष्प्रवृत्तियों से पाप कर्मों का आस्रव होता है। मोक्षशास्त्र-तत्त्वार्थसूत्र के छठे अध्याय में आस्रव के हेतुओं के संबंध में कहा है-“शुभः पुण्यस्य, अशुभः पापस्य” अर्थात् शुभ योग `पुण्य के आस्रव के हेतु हैं और अशुभयोग पाप के आस्रव के हेतु हैं। यहाँ शुभ और अशुभ योग का आधार शुभ और अशुभ कर्म प्रकृतियों का बंध होना नहीं है, अपितु विद्यमान पुण्य-पाप कर्मों के अनुभाग में वृद्धि हानि होना है। कारण कि यदि पाप कर्मों के बंध होने के आधार पर पापास्रव माना जाय तो दसवें गुणस्थान तक ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि पाप कर्म प्रकृतियों का सतत बंध होता रहता है। अत: दसवें गुणस्थान तक अशुभ योग ही मानना पड़ेगा, शुभ योग नहीं। इसी प्रकार आठवें गुणस्थान तक अगुरुलघु, निर्माण, तैजस, कार्मण शरीर आदि पुण्य प्रकृतियों का बंध भी निरंतर होता रहता है तथा दसवें गुणस्थान में उच्चगोत्र, यशकीर्ति आदि पुण्य प्रकृतियों का बंध होता है। अत: यहाँ तक शुभ योग ही मानना होगा, अशुभ योग नहीं। इस प्रकार दसवें गुणस्थान तक शुभयोग और अशुभयोग इन दोनों योगों का होना और न होना युगपत् मानना पड़ेगा जो उचित नहीं
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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