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पुण्य-पाप तत्त्व
अध्ययन 1, सूत्र 4 की टीका में किया है। अभिप्राय यह है कि जैन दर्शन में आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष तत्त्वों का विवेचन मुख्यत: पाप को दृष्टि में रखकर किया गया है।
वीतराग के अतिरिक्त शेष समस्त जीवों में आंशिक गुण और आंशिक दोष हैं। गुण स्वाभाविक हैं और सब जीवों को स्वतः प्राप्त हैं। दोष प्राणी के द्वारा पैदा किए गये हैं। दोषों ने ही गुणों को आच्छादित किया है। अत: गुण के प्रकट न होने में दोष ही कारण हैं। दोष जितने-जितने अंश में कम होते जाते हैं उतने-उतने अंश में गुण प्रकट होते जाते हैं, आत्मा पवित्र होती जाती है। आत्मा का पवित्र होना ही पुण्य है।
दोष पाप हैं। इनसे पाप कर्मों का बंध होता है और गुणों से आत्मा के पवित्र होने से पुण्य कर्मों का बंध होता है। इसलिये सभी प्राणियों के जितने अंश में दोष हैं उतने पाप कर्म बंधते हैं और जितने अंश में दोषों की कमी होती जाती है, गुण प्रकट होते जाते हैं, उतने अंशों में पुण्य कर्मों के उपार्जन से वृद्धि होती जाती है। पुण्य का उपार्जन पाप की कमी से ही होता है। अत: दोष मिटाने का दायित्व जीव का है। दोषों को, पापों को मिटाना ही साधना है, दुःखों से मुक्ति पाना है। आगमों में जो भी तत्त्वों का वर्णन किया गया है वह दोषों को दूर करने को अर्थात् साधना व मुक्ति प्राप्ति को लक्ष्य में रखकर किया गया है। दोष मिटने से गुणों की अभिव्यक्ति एवं पुण्य कर्मों का उपार्जन व वृद्धि निःसर्ग से स्वत: होती है। इसके लिए अन्य कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता है। पुण्य-कर्म पाप की कमी का, आत्मा की पवित्रता का, आत्म-शुद्धि का, आत्म-विकास का सूचक है। जैसा कि कहा है
पुनाति आत्मानम् इति पुण्यम्।
-स्थानांग सूत्र टीका एवं सर्वार्थसिद्धि टीका 6.3