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________________ कर्म - सिद्धांत और पुण्य-पाप अंशमात्र भी घात नहीं हो, उन्हें अघाती कर्म कहा गया है। घाती कर्म ही आत्मा के गुणों के घातक हैं। अत: साधक के लिए इनका ही क्षय करना आवश्यक है। अघाती कर्म प्रकृतियों की सत्ता का पूर्ण क्षय क्षपक श्रेणी, वीतरागता एवं केवली समुद्घात से भी नहीं होता है। 53 ज्ञानावरण की 5, दर्शनावरण की 9, मोहनीय की 28 एवं अंतराय कर्म की 5 ये कुल 47 कर्म प्रकृतियाँ घाती हैं। ये ही आत्मा के गुणों का घात करने वाली हैं। अतः ये सब पाप प्रकृतियाँ आत्मा के लिए घोर अहितकारी हैं। शेष वेदनीय की 2, आयुकर्म की 4, नाम कर्म की 67 और गोत्र कर्म की 2 प्रकृतियाँ - इन चार कर्मों की ये कुल 75 प्रकृतियाँ अघाती हैं। इन्हीं 75 प्रकृतियों में सातावेदनीय, तिर्यंच - मनुष्य-देव आयु, उच्च गोत्र तथा नाम कर्म की 37 शुभ प्रकृतियाँ, ये कुल 42 प्रकृतियाँ पुण्य कर्म की हैं, शेष प्रकृतियाँ पाप कर्म की हैं। अघाती कर्म के पुण्य-पाप की किसी भी प्रकृति के बंध, उदय व सत्ता से जीव के किसी भी गुण का घात नहीं होता है। अत: ये साधना में, आत्म-विकास में व मुक्ति के मार्ग में बाधक नहीं हैं। यही कारण है कि चौदहवें अयोगी गुणस्थान के द्विचरम समय तक चारों अघाती कर्मों की पुण्य-पाप की प्रकृतियों की सत्ता रहने पर भी केवलज्ञान, केवलदर्शन आदि क्षायिक लब्धियाँ प्रकट होने में बाधा उपस्थित नहीं होती। अपितु मनुष्य गति, पंचेन्द्रिय जाति, सुभग, आदेय, यश:कीर्ति आदि पुण्य-प्रकृतियों के उदय की अवस्था में ही साधुत्व (महाव्रत) तथा वीतरागता की साधना एवं केवलज्ञान, केवलदर्शन की उत्पत्ति संभव है। तात्पर्य यह है कि पुण्य कर्म-प्रकृतियाँ मुक्ति-प्राप्ति की साधना में बाधक नहीं हैं, अपितु आवश्यक हैं।
SR No.034369
Book TitlePunya Paap Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year2017
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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