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________________ तेजस्काय 57 प्रतीत नहीं होती है। ज्वर-ग्रस्त व्यक्ति अपने 104 डिग्री या 105 डिग्री गर्म पेट पर हाथ रखता है तो उसे गर्म मालूम नहीं होता है। अभिप्राय यह है कि उष्णता-शीतलता की अनुभूति व अनुकूलता-प्रतिकूलता प्राणी के शरीर की प्रकृति पर निर्भर करती है। अग्निकाय के जीवों के शरीर की प्रकृति अत्युष्ण है अत: अति उष्णता में वे जीवित रह सकें, इसमें आश्चर्य जैसी कोई बात नहीं है। फिनिक्स पक्षी अग्नि में गिरकर नवजीवन प्राप्त करता देखा गया है। जैसे मनुष्य शरीर लगभग 98 डिग्री गर्म रहने की अवस्था में भी जीवित रहता है और शरीर की गर्मी 40 डिग्री से कम हो जाने पर मर जाता है व उसका शरीर ठण्डा पड़ जाता है। इसी प्रकार अग्निकाय के जीव भी एक निश्चित गर्मी के तापमान में जीवित रहते हैं। उससे कम गर्मी होने पर मर जाते हैं और उनका शरीर ठण्डा पड़ जाता है। जिस प्रकार त्रस प्राणी चलते हैं उसी प्रकार अग्नि भी चलती है। इस दृष्टि से आगमों में इसे त्रसकाय भी कहा जाता है। यथा तेऊ वाऊ य बोद्धव्वा, उराला य तसा तहा। इच्चेए तसा तिविहा, तेसिं भेए सुणेह मे।। -उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन 36, गाथा 108 अर्थात् अग्निकाय, वायुकाय और प्रधान त्रसकाय इस तरह तीन प्रकार के त्रसकाय हैं। अग्निकाय की चलने की यह क्रिया जब दावानल (वन में लगी आग) के रूप में प्रकट होती है तो सैंकड़ों मील बढ़ती ही चली जाती है परंतु यह क्रिया जब बड़वानल (समुद्र में लगी आग) के रूप में प्रकट होती है तब तो भयंकर रूप धारण कर लेती है और हजारों मील की परिधि में फैल जाती है। ऐसी समुद्री आग वर्तमान काल में भी अनेक बार देखी गई है।
SR No.034365
Book TitleVigyan ke Aalok Me Jeev Ajeev Tattva Evam Dravya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherAnand Shah
Publication Year2016
Total Pages315
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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