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अत्यन्त आवश्यक है। श्री लोढ़ा साहब ने इस दिशा में प्रयास कर ‘‘विज्ञान एवं मनोविज्ञान के परिप्रेक्ष्य में धर्म' नाम से एक पुस्तक भी लिखी, जिसकी पाण्डुलिपि पुरस्कृत हुई, किन्तु वह अप्रकाशित रूप से ही लुप्त हो गई। उसी पुस्तक के एक अंश रूप में यह पुस्तक हैजीव - अजीव तत्त्व एवं द्रव्य ।
इस पुस्तक में जैन आगमों में निरूपित जीव एवं अजीव द्रव्यों के स्वरूप को विज्ञान के आलोक में प्रस्तुत किया गया है। जीवाभिगम, प्रज्ञापना, स्थानांग आदि सूत्रों में जीव एवं अजीव का विस्तृत निरूपण है। जैनदर्शन में मुक्ति प्राप्त करने के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र का आराधन अनिवार्य है और सम्यग्दर्शन आदि के लिए जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध एवं मोक्ष सहित नव तत्त्वों को जानना एवं उन पर श्रद्धान करना आवश्यक है। लेखक ने सभी नवतत्त्वों पर लेखन किया है। उनमें सबसे प्रथम जीव एवं अजीव तत्त्व पर यह पुस्तक प्रकाशित है। आगे पुण्य-पाप, आस्रव-संवर आदि तत्त्वों पर भी पुस्तक प्रकाशित करने का लक्ष्य है।
जीव एवं अजीव ये दो तत्त्व प्रमुख हैं। पुण्य-पाप आदि शेष सात ( तत्त्वार्थ सूत्र के अनुसार आस्रव, संवर आदि पाँच) तत्त्व जीव एवं अजीव के संयोग एवं वियोग से ही निष्पन्न होते हैं। जीव एवं अजीव 'द्रव्य' भी हैं तथा 'तत्त्व' भी । तत्त्व भाव रूप होते हैं तथा द्रव्य सत् रूप। मुक्ति के लिए तत्त्व को समझना आवश्यक है, तथापि भौतिक युग में द्रव्यों की उपेक्षा नहीं की जा सकती, इसलिए इस पुस्तक में जीव एवं अजीव का वर्णन द्रव्य के रूप में ही अधिक हुआ है।
विज्ञान के अनुसार संसार के समस्त पदार्थों को दो भागों में