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________________ 5. पृथ्वीकाय जीव तत्त्व का विवेचन करते हुए जैन-आगमों में संसारस्थ जीवों के मुख्यतः दो भेद कहे गये हैं“संसार समावन्नवगा तसे चेव थावरा चेव।" -स्थानाङ्ग स्थान 2, उद्देशक 1, सूत्र 57 __ अर्थात् संसारी जीव दो प्रकार के हैं-त्रस और स्थावर। जो जीव चलते-फिरते हैं उन्हें त्रस और जो जीव स्थिर रहते हैं वे स्थावर कहे जाते हैं। केंचुआ, मक्खी, मच्छर, पशु आदि त्रस जीवों को तो अन्य दर्शन भी सजीव स्वीकार करते हैं, परंतु स्थावर जीवों को एकमात्र जैन दर्शन ही सजीव मानता आ रहा है। जैन दर्शन में स्थावर जीवों के पाँच भेद कहे गये हैं पंच थावर काया पण्णत्ता तं जहा-इंदे थावरकाए (पुढवी थावरकाए), बंभे थावरकाए (आऊ थावरकाए), सिप्पे थावरकाए (तेऊ थावरकाए), सुमई थावरकाए (वाऊ थावरकाए), पयावच्चे थावरकाए (वणस्सइ थावरकाए)।" -स्थानाङ्ग स्थान 5, उद्देशक 1, सूत्र 394 अर्थात् स्थावर काय जीव के पाँच भेद होते हैं-पृथ्वी स्थावरकाय, जल स्थावरकाय, अग्नि स्थावरकाय, वायु स्थावरकाय और वनस्पति स्थावरकाय। कुछ समय पूर्व दर्शन की स्थावर जीवों की मान्यता को जैनेतर दार्शनिक एक मनगढंत मान्यता मानते थे। परंतु विज्ञान ने इस मान्यता को
SR No.034365
Book TitleVigyan ke Aalok Me Jeev Ajeev Tattva Evam Dravya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherAnand Shah
Publication Year2016
Total Pages315
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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