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जीव तत्त्व का स्वरूप
17 है और पशुओं से कीट-पतंग, कीट-पतंगों से वृक्ष आदि कम अशान्त हैं। यही कारण है कि मनुष्य से उनके कम कर्म बँधते हैं। जानकारी के कारण ही भवनपतियों के पास रहने वाले भवनहीन जीव नारकीय जीवन बिताते है। भवनपति उनके दु:ख के निमित्त कारण बनते हैं। 5. जिन व्यक्तियों को भोग्य पदार्थों की जानकारी भी है, परन्तु उन्हें क्रय करना, प्राप्त करना उनके वश की बात नहीं है। ऐसी स्थिति में भी उनके मन में उन वस्तुओं को पाने का संकल्प, न मिलने का विकल्प नहीं उठता है। जैसे-एक भिखारी को कार पाने, बंगला बनाने का संकल्प-विकल्प नहीं होता है। इसका कारण यह नहीं है कि वह इन्हें नहीं चाहता है कारण कि आज भी उसकी सामर्थ्य क्रय करने व संभाल सकने की हो, व्यय वहन करने की हो अथवा कोई मुफ्त देने वाला व व्यय वहन करने वाला मिल जाये, तो वह भी इन वस्तुओं को लेने को तैयार हो जायेगा।
निद्रा आदि उपर्युक्त कारणों से होने वाली निर्विकल्प स्थिति तो प्राणी के जीवन में होती ही रहती है। उससे शान्ति मिलती है। शक्ति का संचय भी होता है, परन्तु उस शान्ति और निर्विकल्पता का कोई महत्त्व नहीं है, जो निद्रा, जड़ता, मूर्छा, अज्ञानता और असमर्थता के कारण मिलती है। कारण कि ये सब स्थितियाँ जड़ता जनित हैं तथा चेतना के स्वभाव के विपरीत हैं, हानिकारक हैं।
साधना में महत्त्व हैं त्याग-तप के प्रभाव से कषाय के अनुदय से प्रकट चिन्मयता एवं अनुभव रूप निर्विकल्प बोध का। यह निर्विकल्प
अनुभव दो प्रकार से होता है-1. कषायों के उपशम से एवं 2. कषायों से क्षय से।
कषायों के उपशम से होने वाले निर्विकल्प अनुभव में सत्ता में