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________________ 261 पुद्गल की विशिष्ट पर्याय हुई यह ध्वनि आगे चलकर नष्ट हो जाती है। इस मूल रूप में ध्वनि किसी सीमा तक ही जा सकती है। यह ग्रह-नक्षत्रों तक नहीं पहुँच सकती। ध्वनि का यह रूप जैनागम में वर्णित भाषा के अभिन्न रूप से साम्य रखता है। लेकिन जब इसी मूल ध्वनि को रेडियो आदि स्टेशनों पर यंत्रों द्वारा विद्युत् तरंगों में रूपांतरित कर दिया जाता है तो इसकी गति में असाधारण वृद्धि हो जाती है। फिर वह प्रति सैकेण्ड 1,86,200 मील अर्थात् तीन लाख किलोमीटर से अंतरिक्ष में निर्बाध गति करती हुई ब्रह्माण्ड में प्रसारित होती है। ध्वनि का यह रूप जैनदर्शन में वर्णित भाषा के अभिन्न रूप में साम्य रखता है। परंतु इस रूप में इतनी तीव्र गति से चलने पर भी ध्वनि को नयनों से दृश्यमान पदार्थ नक्षत्र-निहारिकाओं को पार करने में भी अरबों-खरबों वर्ष लग जाते हैं। अत: ‘क्षणमात्र में ध्वनि लोकांत तक पहुँच जाती है' इस जैन सिद्धांत की पुष्टि होना शेष रह जाता है। जैनदर्शन के उपर्युक्त सिद्धांत की पुष्टि मनोविज्ञान के क्षेत्र में हुए टेलीपैथी के आविष्कार से होती है। अमेरिकन और रूसी वैज्ञानिक प्रयोगों के आधार पर इस कथन की पुष्टि करते हैं कि टेलीपैथी (दूर विचारप्रेषण क्रिया) द्वारा शब्द मन के माध्यम से एक क्षण में विश्व के किसी भी छोर तक पहुंच जाते हैं। लाखों-करोड़ों मील दूर भ्रमण करने वाले कृत्रिम उपग्रहों में समाचार भेजने के लिए इसी प्रक्रिया को सबसे अधिक उपयुक्त माना जाता है। अत: अंतरिक्ष विशेषज्ञ वैज्ञानिकों का ध्यान इसी प्रणाली की ओर लगा हुआ है। ___ बेतार के तार का सिद्धांत भी जैनग्रन्थों में हजारों वर्ष पूर्व प्रतिपादित हो चुका था, यथा तएणं तीसे मेघोघरसियगंभीरमहुरयरसदाए जोयण परिमंडलाए सुघोसाए
SR No.034365
Book TitleVigyan ke Aalok Me Jeev Ajeev Tattva Evam Dravya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherAnand Shah
Publication Year2016
Total Pages315
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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