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जीव-अजीव तत्त्व एवं द्रव्य मोही व्यक्ति द्वारा इस सत्यानुभूति का अनादर दर्शनावरणीय कर्म का कारण है। इसमें विषय-भोग सुखद है, यह मिथ्या मान्यता रूप मिथ्यात्व या 'दर्शन मोहनीय' ही प्रमुख कारण है। इस प्रकार दर्शनावरणीय के बंध का प्रमुख कारण मोहनीय कर्म है। अत: जैसे-जैसे मोहनीय कर्म क्षीण होता जाता है, दर्शनावरणीय कर्म भी क्षीण होता जाता है, चेतना गुण बढ़ता जाता है। दर्शन गुण है-स्व-संवदेन-चैतन्य (चेतनता) का अव्यक्त बोध व अनुभव होना। जितना इस चैतन्य गुण पर आवरण आता जात है उतना ही दर्शनावरणीय कर्म प्रगाढ़ होता जाता है अर्थात् जड़ता बढ़ती जाती है (ध्यान की गहराई में इस तथ्य का प्रत्यक्षीकरण व साक्षात्कार स्पष्ट होता है।) निद्रा के समय स्वरूप विस्मृति हो जाती है। अतः निद्राओं को दर्शनावरणीय कर्म की सर्वघातिनी प्रकृतियों में गिनाया है। निद्राओं से जड़ता आती है। यह जड़ता दर्शनावरणीय कर्म की द्योतक है। अनिद्रित अवस्था को स्वरूप बोध, जागरूकता, यतना, अप्रमाद कहा गया है।
चेतन अवस्था में ही नैसर्गिक सत्य का बोध (अनुभव) होता है। जड़ता अवस्था में सत् स्वरूप का, अविनाशित्व का अनुभव नहीं होता है, प्रत्युत विनाशी अवस्था ही अविनाशी या 'सत्' प्रतीत होती है। असत् को सत् मानना एवं सत् को असत् मानना, मिथ्यात्व है। जितना चेतनता गुण बढ़ता जाता है उतना ही पदार्थ के स्थूल रूप से सूक्ष्म रूप का प्रकटीकरण अर्थात् अनुभव या संवेदन होता जाता है। अंत में सूक्ष्मतम अंश परमाणु की सच्चाई का अनुभव करने पर केवलदर्शन की उपलब्धि हो जाती है, पूर्ण चैतन्य गुण प्रकट हो जाता है। इस प्रकार केवलदर्शन की उपलब्धि में दर्शनमोहनीय का क्षयोपशम परंपरा कारण एवं चारित्र मोहनीय का क्षय अनन्तर कारण है। आशय यह है कि दर्शनावरणीय कर्म के छेदन में मोहनीय कर्म के त्याग का बहुत बड़ा महत्त्व है।