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________________ कालद्रव्य 189 जगेराल्ड के संकुचन के नियमों के अनुसार काल में संकुचन हो जायेगा और यह संकोच 10 : 6 के अनुपात में होगा अर्थात् 6 x 50/10 = 30 वर्ष लगेंगे। इससे यह फलित होता है कि काल पदार्थ के परिणमन और क्रिया को प्रभावित करता हुआ उसकी आयु पर भी प्रभाव डालता है। पदार्थ की आयु, दीर्घता, अल्पता एवं पौर्वापर्य काल में भाग लेता है। इस प्रकार जैन दर्शन में प्रतिपादित काल के परत्व-अपरत्व लक्षण को आधुनिक विज्ञान गणित के समीकरणों से स्वीकार करता है। तात्पर्य यह है कि जैनदर्शन में वर्णित काल के वर्तना, परिणाम क्रिया, परत्व एवं अपरत्व लक्षणों को वर्तमान विज्ञान सत्य प्रमाणित करता है। काल के स्वरूप के विषय में श्वेताम्बर और दिगम्बर आचार्यों में कुछ मान्यता भेद भी है। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार काल औपचारिक द्रव्य है तथा जीव और अजीव की पर्याय है यथा-'किमयं भंते! कालोति पव्वुच्चई गोयमा? जीवा चेव अजीवा चेव।' तथा अन्यत्र 6 द्रव्यों को गिनाते समय अद्धासमय रूप में काल द्रव्य को स्वतंत्र द्रव्य माना गया है। दिगम्बर परम्परा में काल को स्पष्ट, वास्तविक व मूल द्रव्य माना है यथा लोगागासपदे से एक्के एक्के जेट्ठिया हु एक्केक्का। रयणाणं रासी इव ते कालाणू असंख दव्वाणि।।588॥ एगपएसो अणुस्स हवे।।585 लोगपएसप्पमो कालो॥587॥ -गोम्मटसार, जीवकांड अर्थात् काल के अणु, रत्न-राशि के समान लोकाकाश के एक प्रदेश में एक-एक स्थित है। पुद्गल द्रव्य का एक अणु एक ही प्रदेश में रहता है। लोकाकाश के जितने प्रदेश हैं उतने ही काल द्रव्य हैं।
SR No.034365
Book TitleVigyan ke Aalok Me Jeev Ajeev Tattva Evam Dravya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherAnand Shah
Publication Year2016
Total Pages315
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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