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________________ कालद्रव्य 187 परिणामी होने से काल द्रव्य दूसरे द्रव्य रूप परिणत हो जाय यह बात नहीं है। वह न तो स्वयम् दूसरे द्रव्य रूप में परिणत होता है और न दूसरे द्रव्यों को अपने स्वरूप अथवा भिन्न द्रव्य स्वरूप में परिणमाता है, किंतु अपने स्वभाव से ही अपने-अपने योग्य पयार्यों से परिणत होने वाले द्रव्यों के परिणमन में यह काल द्रव्य उदासीनता पूर्वक स्वयं बाह्य सहकारी निमित्त बन जाता है। इस प्रकार काल के आश्रय से प्रत्येक द्रव्य अपने-अपने योग्य पयार्यों से परिणत होता है। जिस प्रकार द्रव्यों की गति और स्थिति रूप क्रिया में धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय उपादान व प्रेरक निमित्त कारण न होकर उदासीन सहकारी निमित्त कारण होते हैं और द्रव्य अपनी ही योग्यता से गति और स्थिति रूप क्रिया करते हैं। उसी प्रकार पदार्थों के परिणमन में काल उदासीन सहकारी निमित्त कारण होता है। इसके निमित्त से पदार्थ में प्रतिक्षण नव निर्माण व विध्वंस सतत होता रहता है जो क्रिया रूप से प्रकट होता है। निर्माण विध्वंस की यही क्रिया घटनाओं को जन्म देती है। इस प्रकार काल ही पदार्थों के समस्त परिणमनों, क्रियाओं व घटनाओं का आदि सहकारी कारण है। दूसरे शब्दों में, काल पदार्थों के परिणन, क्रियाशीलता व घटनाओं के निर्माण में भाग लेता है। आधुनिक विज्ञान भी जैनदर्शन में कथित उपर्युक्त तथ्य को स्वीकार करता है यथा-आइंस्टीन ने देश और काल से उनकी तटस्थता छीन ली है और यह सिद्ध कर दिखाया है कि ये भी घटनाओं में भाग लेते हैं। प्रसिद्ध वैज्ञानिक जींस का कथन है कि हमारे दृश्य जगत् की सारी क्रियाएँ मात्र फोटोन और द्रव्य अथवा भूत की क्रियाएँ हैं तथा इन क्रियाओं का एकमात्र मंच देश और काल है। इसी देश और काल ने दीवार बनकर हमें घेर रखा
SR No.034365
Book TitleVigyan ke Aalok Me Jeev Ajeev Tattva Evam Dravya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherAnand Shah
Publication Year2016
Total Pages315
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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