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जीव-अजीव तत्त्व एवं द्रव्य में भी माने हैं। इस विषय में डॉ. श्री जगदीशचन्द्र बसु ने यंत्रों व प्रयोगों की सहायता से यह सिद्ध कर दिखाया कि वनस्पति में इच्छा, तृष्णा, कामना, ममता आदि रागात्मक वृत्तियाँ विद्यमान हैं। प्रयोगों से यह ज्ञात हुआ है कि यूकलिप्टिस का पौधा अपनी भोगेच्छा की पूर्ति हेतु अपनी जड़ें उसी ओर आगे बढ़ाता है जिस ओर उसका भोज्य पदार्थ जल होता है। फिर यह जल सैकड़ों फुट दूर ही क्यों न हो व मार्ग में कितनी ही बाधाएँ क्यों न आवें।
इच्छा भी लोभ का ही एक रूप है। जिस प्रकार मनुष्य इच्छापूर्ति हेतु प्रयत्नशील होते हैं, उसी प्रकार वनस्पतियाँ भी अपनी इच्छा-पूर्ति हेतु प्रयत्नशील होती है। विश्वविख्यात विज्ञानवेत्ता डार्विन का कथन है कि इतना तो नि:संदेह मानना ही पड़ेगा कि जड़ें कहीं ऊपर की ओर चलती हैं तो कहीं नीचे की ओर, कहीं झुकती हैं तो कहीं हटती हैं। खतरे की आशंका होने पर मुड़कर आगे बढ़ती हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि पौधा अपने भोजन की इच्छा-पूर्ति के लिए सोच-विचार पूर्वक अपनी जड़ों को धरती के भीतर आगे बढ़ाने का प्रयत्न करता है।
तृष्णा भी लोभ का ही एक अंग है। जिस प्रकार लोभी व्यक्ति तृष्णा के वश हो वस्तुओं का संग्रह करता है, उसी प्रकार वनस्पतियाँ भी तृष्ण के वश हो भोजन-संग्रह करती हैं। इस विषय में वनस्पति-विज्ञानविशेषज्ञों का कथन है कि पौधों के इस भोजन संग्रह से ही उनमें बसंत ऋतु में नई पत्तियाँ फूटती हैं। वनस्पति विज्ञान से अनभिज्ञ व्यक्ति समझते हैं कि ये पत्तियाँ शुरू से बसंत ऋतु में ही बनती होंगी, परंतु सच तो यह है कि पुरानी पत्तियों के गिरने से पहले ही उनका स्थान ग्रहण करने वाली
1. नवनीत, जुलाई 57, पृष्ठ 52