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जीव-अजीव तत्त्व एवं द्रव्य फूले नहीं समाते हैं और गर्व से उन्मुक्त हवा में झूलने लगते हैं। उनकी यह उन्मत्तता उनके अंग-प्रत्यंग से फूट पड़ती है। श्री जगदीशचन्द्र बसु ने यंत्रों की सहायता से सिद्ध किया कि मनुष्य की भाँति पौधे भी अनुकूल भोजन-समाग्री पाकर एवं मधुर संगीत सुनकर हर्ष से उन्मत्त हो जाते हैं और इन्हें प्रतिकूल पाकर मुरझाने लगते हैं।
उत्कर्ष मान का ही एक रूप है और उत्कर्ष की यह उपलब्धि धन, जन आदि संपत्ति के विस्तार से होती है। मनुष्य में विस्तार की यह भूख कई रूपों में प्रकट होती है। उनमें मुख्य है वैयक्तिक व पारिवारिक रूप। मनुष्य वैयक्तिक उत्कर्ष के लिए अपने बल, बुद्धि, विद्या, धन-धान्य आदि का विस्तार करता है और पारिवारिक उत्कर्ष के लिए वंश-वृद्धि करता है। इसी प्रकार वनस्पति में भी विस्तारवृत्ति के वैयक्तिक और पारिवारिक ये दोनों रूप देखे जाते हैं। वृक्ष का अपने शरीर व शरीर संबंधी विस्तार वैयक्तिक उत्कर्ष का रूप है व अपनी जाति या वंश का विस्तार पारिवारिक उत्कर्ष का रूप है।
वनस्पति अपना वैयक्तिक उत्कर्ष भोजन-संग्रह के रूप में संपत्ति जुटाकर करती है। मूली, गाजर आदि कई पौधे जब अपनी जड़ में पर्याप्त भोजन संग्रह कर लेते हैं तो फूलकर कुप्पा हो जाते हैं। घुइयाँ आदि पौधे अपने तने में भोजन-संग्रह होने पर गर्वोन्मत्त हो जाते हैं। बंदगोभी आदि पौधे अपने पत्तों में भोजन का भंडार भरकर अहंकार का पोषण करते है। नागफनी आदि पौधे फूलों में भोजन सामग्री जमा कर फूले नहीं समाते हैं। तात्पर्य यह है कि वनस्पतियाँ अपनी जड़ें, तने, पत्ते, फूल आदि अंगों में खाद्य संपत्ति का संचय होने पर उन्मत्त हो झूमने लगती हैं।
वनस्पति अपने वंश के विस्तार या उत्कर्ष के लिए भी पूर्ण