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चतुर्थ अध्ययन
[71 गुणों को प्रकट कर विश्व के चराचर सकल पदार्थों को हस्तामलकवत् केवल ज्ञान से जानने और केवल दर्शन से देखने लगती है। तीनों लोकों का कोई पदार्थ उससे अज्ञात नहीं रहता।
जया सव्वत्तगं नाणं, दंसणं चाभिगच्छइ ।
तया लोगमलोगं च, जिणो जाणइ केवली ।।22।। हिन्दी पद्यानुवाद
जब सार्वत्रिक पूर्ण ज्ञान, और दर्शन को पा लेता है।
तब सब लोक अलोक जानकर, जिन केवली हो जाता है।। अन्वयार्थ-जया = जब । सव्वत्तगं = सर्वव्यापी । नाणं = ज्ञान-केवलज्ञान । च = और । ईसणं = केवलदर्शन को । अभिगच्छइ = प्राप्त कर लेता है। तया = तब । जिणो = राग-द्वेष को जीतने वाला जिन । केवली = केवली होकर । लोगं = लोक । च = और । अलोगं = अलोक के स्वरूप को । जाणइ = जान लेता है।
भावार्थ-जब साधक सर्वव्यापी ज्ञान और सर्वव्यापी दर्शन प्राप्त कर लेता है। तब वह पूर्ण ज्ञानी होकर लोक और अलोक को जान लेता है। जहाँ जड़-चेतन रूप अनन्त -अनन्त पदार्थ हैं वह लोक और जो शून्यमात्र है उसे अलोक कहा है। केवलज्ञानी लोक और अलोक के सब पदार्थों को द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और गुण से जानते व देखते हैं।
जया लोगमलोगं च, जिणो जाणइ केवली।
तया जोगे निलंभित्ता, सेलेसिं पडिवज्जइ ।।23।। हिन्दी पद्यानुवाद
जब सब लोक अलोक जानकर, जिन केवली हो जाता है।
तब योगों का रोधन कर, शैलेशी पद पा लेता है ।। अन्वयार्थ-जया = जब । जिणो = राग-द्वेष का विजेता । केवली = केवलज्ञानी होकर । लोगं च = लोक और । अलोगं = अलोक को । जाणइ = जान लेता है । तया = तब । जोगे = मन, वचन और काया के योगों का । निलंभित्ता = निरोध कर । सेलेसिं = शैलेशीकरण को । पडिवज्जइ = प्राप्त करता है यानी शैलशिखरवत् पूर्ण अचल-स्थिर हो जाता है।
___ भावार्थ-जब आत्मा घातिकर्मों के क्षय से जिन होकर सम्पूर्ण लोक और अलोक को जानता है, तब मन, वाणी और काय के योगों का सम्पूर्ण निरोध करके चौदहवें गुणस्थान में शैल के समान अचल,