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हिन्दी पद्यानुवाद
जब बहु विध गति सब जीवों की, साधक नर जान यहाँ लेता । तब पुण्य-पाप और बन्ध-मोक्ष, इनका भी ज्ञान सहज होता ।।
अन्वयार्थ-जया = जब आत्मा । सव्वजीवाण = सभी जीवों की । बहुविहं = बहुत प्रकार की । गई = नरक, तिर्यंच आदि गति को । जाणइ = जान लेता है। तया = तब । पुण्णं च = पुण्य और। प च = पाप । बंधं = बन्ध को और । मुक्खं च = मोक्ष को भी । जाणइ = जान पाता है।
हिन्दी पद्यानुवाद
भावार्थ-साधक जब सब जीवों की विविध गतियों को जान लेता है, तब विविध गतियों में भव भ्रमण करने के कारणभूत पुण्य-कर्मों और पाप कर्मों को भी जान जाता है। पुण्य से सुख और पाप कर्म से दु:ख रूप फल मिलता है, यह भी जान लेता है। फिर कर्म के बन्ध और मोक्ष को भी जान लेता है। कर्म का बन्ध मिथ्यात्व आदि कारणों से होता है इसका बोध भी कर लेता है । फिर बन्ध के कारणों को दूर करने में प्रवृत्ति करता है । बन्ध के हेतुओं को सर्वथा छोड़ देता है तो उसके लिये मोक्ष भी सुलभ और स्वयं सिद्ध है।
जया पुण्णं च पावं च, बंधं मुक्खं च जाणइ । तया निव्विंद भोए, जे दिव्वे जे य माणुसे ||16||
[दशवैकालिक सूत्र
जब पुण्य-पाप और बन्ध-मोक्ष, इनको है सहज जान लेता । तब देव मानवी भोगों पर, तन मन से नहीं ध्यान देता । ।
अन्वयार्थ-जया = जब साधक । पुण्णं च = पुण्य और। पावं = पाप को । बंधं च = बन्ध को । मुक्खं च = और मोक्ष को भी । जाणइ = जान लेता है । तया = तब । जे दिव्वे य = जो देव और । जे माणुसे = जो मनुष्य सम्बन्धी । भो = काम भोग हैं उनकी। निव्विंदए = असारता को समझ कर उसे उनसे अरुचि हो जाती है ।
भावार्थ- -पुण्य, पाप, , बंध और मोक्ष का जानने वाला साधक दिव्य और मानवी भोगों की असारता का ज्ञाता होता है । जब शुभ योग से होने वाले पुण्य और अशुभ योग से होने वाले पाप को जान लेता है तो वह यह भी जान लेता है कि संसार के ये काम भोग किम्पाक फल की तरह तत्काल भले ही मधुर लगते हों, पर अन्तिम परिणाम में दु:खदायी होते हैं। ऐसा जान लेने पर देव और मनुष्य भव सम्बन्धी भोगों से उसका राग छूट जाता है, उसे वैराग्य प्राप्त हो जाता है ।
जया निव्विंद भोए, जे दिव्वे जे य माणुसे ।
तया चयइ संजोगं, सब्भिंतरं बाहिरं ।।17।।