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चतुर्थ अध्ययन]
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अन्वयार्थ-सव्वभूयप्पभूयस्स = जो सब जीवों को अपने समान समझता है और । संमं भूयाई पासओ = सभी जीवों को सम्यक् प्रकार से देखता है। पिहिया सवस्स = इससे वह आश्रव के द्वारों को बन्द कर देता है । दंतस्स = ऐसी जितेन्द्रिय आत्मा को । पावकम्मं न बंधड़ = पापकर्म का बन्ध नहीं होता ।
भावार्थ- जब तक कषाय का उदय है, प्रतिपल प्राणी को 7-8 कर्मों का बन्ध होता रहता है, ऐसी स्थिति में हमारी आत्मा पाप कर्म से किस प्रकार बचे, शिष्य की इस जिज्ञासा का समाधान करते हुए आचार्य ने कहा- जो संसार के सब जीवों को अपने समान समझता है और यह मानता है कि जैसे मेरे पैर में काँटा लगने से वेदना होती है, वैसे ही अन्य जीवों को भी पीड़ा होती है। इस प्रकार जीव मात्र को आत्मवत् देखता है । फिर कर्मबन्ध के कारण भूत हिंसा, झूठ आदि आस्रवों को विरति भाव के द्वारा रोक देता है तथा शब्द-रूपस्पर्श आदि इन्द्रिय के विषयों में जो राग नहीं करता है और जिसकी मानसिक वृत्तियाँ भी नियन्त्रित हैं, उस साधु को पाप कर्म का बन्ध नहीं होता ।
हिन्दी पद्यानुवाद
पढमं नाणं तओ दया, एवं चिट्ठइ सव्वसंजए । अन्नाणी किं काही, किं वा नाहिइ सेयपावगं ।।10।।
पहले ज्ञान दया पीछे, ऐसा सब मुनिजन कहते हैं । अज्ञानी क्या कर सकते ? ना अच्छा बुरा समझते हैं ।।
अन्वयार्थ - पढमं नाणं = पहले ज्ञान और । तओ दया = पीछे दया । एवं = इस प्रकार । सव्वसंजए = सभी संयमी । चिट्ठइ = रहते हैं । अन्नाणी = अज्ञानी जीव । किं काही = क्या करेंगे। किं वा नाहिइ (नाही) सेय पावगं = और पुण्य पाप को कैसे जान सकेंगे ?
भावार्थ-जितेन्द्रिय आत्मा पाप कर्म का बन्ध नहीं करती, पूर्व के इस सूत्र पद में पाप से बचने के लिये क्रिया का महत्त्व बतलाया गया है, किन्तु इस गाथा से समझाया जाता है कि चारित्र ज्ञानपूर्वक होने पर ही लाभकारी होता है। इसलिये कहा है कि पहले ज्ञान और फिर दया । इस प्रकार ज्ञान सहित क्रिया से ही सब संयमी रहते हैं। जिनको जीव-अजीव का ज्ञान नहीं है, वे अज्ञानी संयम-धर्म का पालन कैसे करेंगे ? वास्तविक ज्ञान के अभाव में कितने ही लोग देव को बलि देने में धर्म मानते हैं, कुछ सूक्ष्म जीवों की हिंसा में पाप ही नहीं मानते । इस प्रकार बिना ज्ञान के हित-अहित का बोध कैसे होगा? इसलिए क्रिया से पहले ज्ञान भी आवश्यक है।
सोच्चा जाणइ कल्लाणं, सोच्चा जाणइ पावगं । उभयं पि जाणइ सोच्चा, जं सेयं तं समायरे ।।11।।