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चतुर्थ अध्ययन
भावार्थ-पाँचवें महाव्रत में परिग्रह का सर्वथा विरमण किया जाता है। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील इन चार पापों के पीछे पाँचवाँ पाप परिग्रह कहा गया है, जो हिंसादि चार पापों का यह जनक और पोषक है। परिग्रह के लिये ही हिंसा, झूठ, चोरी और कुशील का सेवन किया जाता है, अत: परिग्रह को पापों का मूल कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। परिग्रह के त्याग की भावना लिये हुए शिष्य निवेदन करता है “गुरुदेव ! मैं स्वयं परिग्रह नहीं रखूगा, दूसरों के द्वारा रखाऊँगा नहीं और परिग्रह रखने वाले अन्य को भला भी मानूँगा नहीं। जीवन पर्यन्त तीन करण तीन योग से परिग्रह का मैं त्याग करता हूँ।"
___ वीतराग देव ने बतलाया है कि परिग्रह रखना जैसे पाप है, वैसे दूसरों के पास पैसा जमा कराना और करने वाले का अनुमोदन करना भी पाप बन्ध का कारण है । इसलिये जैन मुनि प्रतिज्ञा करता है-“मैं मन, वचन और काया से परिग्रह रलूँगा नहीं, रखाऊँगा नहीं और परिग्रह रखने वाले को भला भी मानूँगा नहीं। पूर्व में जो परिग्रह किया है, उसके लिये प्रतिक्रमण करता हूँ, निन्दा करता हूँ। गुरु की साक्षी से गर्दा करता हूँ और उस पूर्व की पापकारी आत्मा का व्युत्सर्ग (अलग) करता हूँ।"
टिप्पणी-परिग्रह का अर्थ है-राग के अधीन हो कर पदार्थों को ग्रहण करना । शरीरधारी को अन्न, जल, वस्त्र, पात्र, औषधि आदि ग्रहण करने पड़ते हैं। बाह्य पदार्थ को लिये बिना कोई जीवन नहीं चल सकता।
परन्तु उनके ग्रहण में यदि राग नहीं है, तो वे परिग्रह नहीं कहलाते।
परिग्रह के मुख्य दो प्रकार हैं-1. आभ्यन्तर और 2. बाह्य । बाहरी परिग्रह मुख्यतया दो प्रकार का है-सजीव परिग्रह और निर्जीव परिग्रह ।
दास, दासी, पुत्र, कलत्र, अश्व, गाय आदि पशु, पक्षी और वृक्षादि सजीव परिग्रह हैं और सोनाचाँदी, वस्त्र आदि निर्जीव परिग्रह हैं । संयमी साधु परोपकार और सामाजिक कार्य के लिये भी पैसा जमा नहीं रखता । संयम-साधना के लिये वस्त्र, पात्र और शास्त्रादि धर्मोपकरण भी सीमित ही ग्रहण करता है और बिना मूर्छा भाव के उन्हें धारण करता है। वस्त्र-पात्र-शास्त्र एवं पुस्तकों का संग्रह भी मर्यादा उपरान्त नहीं रखता।
पंचम महाव्रत में साधु ने सर्वथा परिग्रह का त्याग किया है। अत: धर्मोपकरण पर भी मूर्छाभाव नहीं रखता, क्योंकि-'मुच्छा परिग्गहो वुत्तो' अर्थात् मूर्छाभाव को परिग्रह कहा गया है।
___ अहावरे छठे भंते ! वए राइभोयणाओ वेरमणं, सव्वं भंते ! राइभोयणं पच्चक्खामि, से असणं वा, पाणं वा, खाइमं वा, साइमं वा, नेव सयं राई भुंजिज्जा, नेवन्नेहिं राई भुंजाविज्जा, राई भुंजते वि अन्ने न समणुजाणिज्जा, जावज्जीवाए, तिविहं तिविहेणं