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________________ 40] [दशवैकालिक सूत्र तीन करण और तीन योग से, मन वचन और अपने तन से। करूँ न करवाऊँ मैं हिंसा, भला नहीं जानूँ मन से ।। होता हिंसा से अलग और निन्दा गर्दा मैं करता हूँ। प्रथम महाव्रत जीवघात से, विरत सर्वथा होता हूँ ।। अन्वयार्थ-भंते ! = हे भगवन ! पढमे = प्रथम । महव्वए = महाव्रत में। पाणाइवायाओ = प्राणातिपात से। वेरमणं = निवृत्ति करता हूँ। भंते ! = हे पूज्य ! सव्वं = सर्वथा । पाणाइवायं = प्राणातिपात का । पच्चक्खामि = प्रत्याख्यान करता हूँ। से सुहुमं = वह सूक्ष्म । वा = या। बायरं = बादर । तसं = त्रस । वा = अथवा । थावरं = स्थावर जीव के । पाणे = प्राणों का । सयं = स्वयं । नेव अइवाइज्जा = अतिपात यानी हनन कभी करूँगा नहीं। नेवन्नेहिं पाणे...................अन्नं न समणजाणामि । दूसरों से प्राणों का अतिपात कराऊँगा नहीं। प्राणों का अतिपात करने वाले को अच्छा भी नहीं समझूगा । यावज्जीवन अर्थात् जीवन भर के लिये तीन करण और तीन योग से मन से, वचन से, काया से स्वयं करूँगा नहीं, दूसरे से कराऊँगा नहीं और करने वाले का अनुमोदन भी करूँगा नहीं। तस्स भंते!................................वोसिरामि। हे भगवन् ! मैं अतीत में किये गये, प्राणातिपात से निवृत्त होता हूँ। पूर्वकृत पाप की निन्दा करता हूँ। गुरु की साक्षी से उसकी गर्दा करता हूँ और पापकारी आत्मा को अलग (व्युत्सर्ग) करता हूँ। पढमे भंते ! .................. पाणाइवायाओ वेरमणं । हे भगवन् ! मैं प्रथम महाव्रत में उपस्थित हुआ हूँ। अब सर्वथा प्राणातिपात से निवृत्ति करता हूँ। भावार्थ-जैन मुनि महाव्रती होने से पूर्ण अहिंसक होते हैं । वे सूक्ष्म या बादर, त्रस अथवा स्थावर, किसी भी जीव की स्वयं हिंसा करते नहीं, दूसरों से करवाते नहीं और हिंसा करने वाले को अच्छा भी नहीं मानते । प्रथम महाव्रत में सर्वथा हिंसा वर्जन की प्रतिज्ञा को दुहराते हुए शिष्य कहता है कि मैं जीवन भर के लिए तीन करण और तीन योग से अर्थात् हिंसा करूँगा नहीं, कराऊँगा नहीं, करने वाले का अनुमोदन करूँगा नहीं, मन, वचन और काया से और पूर्वकृत हिंसा के पाप को हल्का करने के लिए प्रतिक्रमण करता हूँ। पाप की निन्दा करता हूँ और गुरु-साक्षी से पाप की गर्दा करता हूँ और अपनी आत्मा को पाप से अलग भी करता हूँ। इस प्रकार गुरु के समक्ष प्रतिज्ञा का पुनरावर्तन करने से व्रत में दृढ़ता आती है। अतः शिष्य यह कहकर अपनी प्रतिज्ञा का पुनरावर्तन करता है। अहावरे दुच्चे (दोच्चे) भंते ! महव्वए मुसावायाओ वेरमणं सव्वं भंते ! मुसावायं
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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