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तृतीय अध्ययन - टिप्पणी]
46-48. वमणे-वत्थिकम्म विरेयणे-जानकर बिना कारण वमन करना, नली से स्नेह चढ़ाकर या बत्ती देकर वस्तिकर्म करना, एनिमा भी इसी में समझना चाहिए, जुलाब लेकर विरेचन करना, शरीर का वर्ण सुन्दर बने, स्थूल या कृश बने आदि के उद्देश्य से वमन, विरेचन, वस्तिकर्म करना साधु के लिए निषिद्ध है। वमन आदि से त्रस-स्थावर जीवों की हिंसा सम्भव है। अत: उत्सर्ग मार्ग में इनका संयमी के लिए निषेध है।
49. अंजणे-बिना कारण आँखों में काजल, सुरमा तथा अंजन डालना भी साधु के लिए अनाचार है।
50. दन्तवणे-दाँतों की शोभा करना या मैल उतारना साधु के लिए निषिद्ध है। इसका आशय इन्द्रिय संयम का रक्षण करना है।
51. गायब्भंगे (गात्र अभ्यंग)-साधु शरीर की विभूषा के त्यागी होते हैं। इसलिए बिना किसी कारण शरीर पर तैल की मालिश करना भी अकल्पनीय माना है।
52. विभूसणे (विभूषण)-जैन श्रमण पूर्ण ब्रह्मचारी होते हैं। वे नव बाड़ सहित ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। इसलिये उनके लिये विभूषा नख, केश आदि का सँवारना, वेश-भूषा आदि की सजावट करना अकरणीय है। दशवैकालिक सूत्र में कहा है कि-नग्न, मुण्डित, बढ़े हुए नख, केश वाले तथा मैथुन से उपरत साधु को विभूषा से क्या करना है ? विभूषा से स्व-पर के मन में रागवृद्धि संभव होने से इसे अनाचीर्ण कहा गया है।
(ज्ञातव्य-तिरेपन की परम्परा वाले “राजपिण्ड और किमिच्छक" को एक मानते हैं। बावन की परम्परा वाले "आसन्दी और पर्यत" तथा "गात्राभ्यंग और विभूषणा” को एक मानते हैं। इसकी दूसरी परम्परा वाले गात्राभ्यंग और विभूषणा को एक मानने के स्थान पर लवण को सैंधव का विशेषण मानकर दोनों को एक अनाचार मानते हैं।)
ऊपर कथित अनाचारों के अतिरिक्त और भी जो संयम-मार्ग के प्रतिकूल व्यवहार हों, साधु के लिए वे सब अकरणीय हैं। अनाचारों का वर्जन कर जो शुद्ध आचार-धर्म का पालन करते हैं, वे दिव्य लोक या सिद्धगति के अधिकारी होते हैं।
तृतीय अध्ययन की टिप्पणी समाप्त ।। SxSESS388888888888888SA