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________________ 20] [दशवैकालिक सूत्र हिन्दी पद्यानुवाद तन शोभा हित, धूप, वमन और बस्ति विरेचन का सेवन। दृग अंजन, दाँतों का घिसना, तन मर्दन, भूषण का धारण ।। अन्वयार्थ-धूवणे त्ति = अगर आदि का धूप करना । य = और । वमणे = औषधि के द्वारा वमन करना । वत्थिकम्म = वस्ति कर्म (मलशोधन के लिए बत्ती लगाना, एनिमा लेना) । विरेयणे = विरेचनजुलाब लेना। अंजणे = आँख में अंजन करना । य = और । दंतवणे = दन्तकाष्ठ से दाँतून करना। गायब्भंग = बिना कारण तैलादि की मालिश करना । विभूसणे = शरीर की सजावट करना। भावार्थ-जैन श्रमण शरीर की शोभा के लिए धूप, वमन, विरेचन, वस्तिकर्म, अंजन, दातून, शरीर पर तैलादि की मालिश और विभूषा आदि का आचरण नहीं करता। इनसे जीव हिंसा के साथ रागवृद्धि भी संभव है। अत: ये सब पदार्थ उसके लिये अनाचीर्ण माने गये हैं। सव्वमेयमणाइण्णं, निग्गंथाण महेसिणं । संजमम्मि य जुत्ताणं, लहुभूयविहारिणं ।।10।। हिन्दी पद्यानुवाद ये सब बतलाये अनाचीर्ण, निर्ग्रन्थ महर्षि श्रमणों के। संयम पथ में जो जुड़े हुए, लघु रूप विहारी जीवन के ।। अन्वयार्थ-एयं = उपर्युक्त ये । सव्वं = सब । निग्गंथाण = निर्ग्रन्थ । महेसिणं = महर्षियों के लिये जो । संजमम्मि = संयम-साधन में । जुत्ताणं = लगे हुए । य = और । लहुभूय-विहारिणं = उपधि की अल्पता से लघुभूत विहारी हैं, उनके लिये । अणाइण्णं = अनाचीर्ण हैं। भावार्थ-संयम-साधना में तत्पर और लघुभूत विहारी निर्ग्रन्थ महर्षियों के लिए उपर्युक्त सभी कार्य अनाचीर्ण कहे गये हैं। दंत-पीड़ा, चक्षु-रोग और उदर-विकार आदि कारणिक स्थिति में औषध के रूप में इनका प्रयोग करना पड़े यह दूसरी बात है, अन्यथा अनारंभी साधु को अंजन, मंजन, विरेचन आदि से यथाशक्य बचते रहना चाहिए। पंचासव-परिणाया, तिगुत्ता छसु संजया। पंचनिग्गहणा धीरा, निग्गंथा उज्जुदंसिणो ।।11।। हिन्दी पद्यानुवाद जो त्यागी हैं पंचाश्रव के, त्रिगुप्त जीव षट् पर संयत । पंचेन्द्रिय के जयी धीर, ऋजुदर्शी होते संत सतत ।। अन्वयार्थ-पंचासवपरिणाया = हिंसा आदि 5 आस्रवों को ज्ञानपूर्वक त्यागने वाले । तिगुत्ता =
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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