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[दशवैकालिक सूत्र आचरण करके जब वह संयम भ्रष्ट साधु काल-धर्म को प्राप्त होता है तब । अणभिज्जियं (अणहिज्झियं) = अनिष्ट | गइं = नरकादि गतियों में । गच्छे = जाकर । दुहं = अनेक प्रकार के दुःख भोगता है । य = और । से = उसे । पुणो पुणो = अनेक भवों में भी । बोही = बोधि बीज समकित एवं जिनधर्म की प्राप्ति होना । नो सुलभा (नो सुलहा) = सुलभ नहीं है।
भावार्थ-जो संयम में भ्रष्ट साधु आवेग पूर्ण चित्त से भोगों को भोगता है, वह तथाविध असंयम का आसेवन कर अनिष्ट एवं दुःखपूर्ण गति में जाता है और बार-बार जन्म-मरण करने पर भी उसे बोधि-धर्म की प्राप्ति सुलभ नहीं होती ।
इमस्स ता नेरइयस्स जंतुणो, दुहोवणीयस्स किलेसवत्तिणो । पलिओवमं झिज्झइ सागरोवमं, किमंग पुण मज्झ इमं मणोदुहं ।।15।।
हिन्दी पद्यानुवाद
दुःख युक्त क्लेशमय जीवन को, जीने वाले इन नारक की। पल्योपम या सागर सम, दीर्घायु अन्त होती जन की ।। फिर मेरा मनोदुःख कब तक, इस तन में रहने वाला है। होता है जिसका उदय, अस्त भी उसका होने वाला है ।।
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अन्वयार्थ-संयम में आने वाले आकस्मिक कष्टों से घबराकर संयम छोड़ने की इच्छा करने वाले साधु को इस प्रकार विचार करना चाहिये कि - नेरइयस्स नरकों में अनेक बार उत्पन्न होकर । इमस्स जंतुणो = मेरे इस जीव ने। किलेसवत्तिणो = अनेक क्लेश एवं । दुहोवणीयस्स (दुहोवणियस्स) असह्य दु:ख सहन किये हैं और । पलिओवमं = वहाँ की पल्योपम और । सागरोवमं = सागरोपम जैसी दुःखपूर्ण लम्बी आयु को भी। झिज्झर (झिज्जइ) = समाप्त कर वहाँ से निकल आया है । ता पुण : तो फिर । मज्झ = मेरा । इमं = यह । मणोदुहं = चारित्र विषयक मानसिक दुःख तो इसके सामने । किमंग = है ही क्या चीज ?
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भावार्थ-दुःख से युक्त और क्लेशमय जीवन बिताने वाले इन नारकीय जीवों की पल्योपम और सागरोपम आयु भी समाप्त हो जाती है। तो फिर मेरा यह मनोदुःख कितने काल तक रहने वाला है।
न मे चिरं दुक्खमिणं भविस्सई, असासया भोगपिवासजंतुणो ।
न चे सरीरेण इमेणऽविस्सई, अविस्सई जीवियपज्जवेण मे ।।16।।
हिन्दी पद्यानुवाद
निश्चय मेरे ये मनोदुःख, चिरकाल न रहने पाएँगे । जीवों की भोग पिपासा का, भी अन्त हन्त ! हो जाएँगे ।।