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________________ 262] [दशवैकालिक सूत्र भावार्थ-जो सत्य-शील आदि आचार-धर्म की शुद्ध पालना के लिये गुरु का विनय करता है, गुरुदेव की सेवा में रहता हुआ उन के वचन को अंगीकार करता है, उनके उपदेश के अनुसार काम करने की आकांक्षा रखता है तथा विचार व आचार से गुरु की आशातना नहीं करता, वह संसार में पूज्य होता है। रायणिएसु विणयं पउंजे, डहरा वि य जे परियायजिट्ठा। नीयत्तणे वट्टइ सच्चवाई, उवायवं वक्ककरे स पुज्जो ।।3।। हिन्दी पद्यानुवाद शिशु होकर भी पर्याय ज्येष्ठ, उस रत्नाधिक में विनय करे। निम्नासन वाला सत्य व्रती, है पूज्य वन्द्य का वचन करे ।। अन्वयार्थ-जे = जो । डहरा वि य = अवस्था में बालक होकर भी। परियाय (परिआय) = दीक्षा पर्याय से। जिट्ठा = ज्येष्ठ यानी बड़े हैं, उन । रायणिएसु = रत्नाधिकों की। विणयं पउंजे = विनय करता है। नीयत्तणे वट्टइ = नम्र भाव से रहता है। सच्चवाई = सत्य बोलने वाला है। उवायवं = गुरु के समीप रहता है । वक्ककरे = उनकी आज्ञा का पालन करता है। स = वह। पुज्जो = लोक में पूज्य है। ___ भावार्थ-जिन शासन में कुल, जाति या अवस्था की अपेक्षा व्रताराधन का अधिक महत्त्व है, इसलिये उन साधुओं का, जो वय से छोटे हैं, पर ज्ञानादि रत्नों से जो चिरकाल दीक्षित हैं, विनय करना चाहिये। अवस्था में बालक भी जो व्रत की दीक्षा में ज्येष्ठ है उनके प्रति भी जो नम्र भाव से रहता है, सत्यवादी और गुरुसेवा में रहता है तथा उनकी आज्ञानुसार चलता है, वह लोक में पूज्य होता है। अण्णाय उंछं चरइ विसुद्धं, जवणट्टया समुयाणं च णिच्चं । अलद्भुयं णो परिदेवइज्जा, लद्धं न विकत्थइ स पुज्जो।।4।। हिन्दी पद्यानुवाद अज्ञात कुल से जो स्वल्प विशुद्ध, संयम हित भिक्षा लेता है। वह पूज्य ! मिले श्लाघा न करे, ना मिले दुःख सह लेता है।। अन्वयार्थ-णिच्चं = जो सदा । जवणट्टया = संयम-यात्रा के लिये । समुयाणं (समुआणं) च विसुद्धं = सामूहिक और निर्दोष भिक्षा । अण्णायउंछं = अज्ञात कुल से थोड़ी-थोड़ी। चरइ = लेता है। अलद्धयं णो परिदेवइज्जा = नहीं मिलने पर खेद नहीं करता है। लद्धं = और पर्याप्त मिलने पर । न विकत्थइ = प्रशंसा नहीं करता है। स = वह । पुज्जो = लोक में पूज्य है। भावार्थ-अच्छा साधु आहार का लोलुपी नहीं होता । वह सदा संयम-यात्रा के निर्वाह हेतु सामूहिक अज्ञात कुल से थोड़ा-थोड़ा शुद्ध, निर्दोष भोजन ग्रहण करता है। अगर कभी भिक्षा में आवश्यक आहार की
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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