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[दशवैकालिक सूत्र भावार्थ- गुरु की मार खाकर एवं पीटे जाकर भी वे राजकुमार, उस शिल्प-कला के ज्ञान की प्राप्ति हेतु उन आचार्य-गुरु की पूजा करते हैं, उनका सत्कार करते हैं, नमस्कार करते हैं और मन से उनकी आज्ञा का पालन करते हुए गुरु को हर प्रकार से सन्तुष्ट व प्रसन्न रखते हैं ।
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हिन्दी पद्यानुवाद
किं पुण जे सुयग्गाही, अणंतहियकामए । आयरिया जं वए भिक्खू, तम्हा तं नाइवत्तए । 116 ।।
क्या फिर ? जो हैं श्रुतग्राही, एवं अनन्त हित के कामी । गुरु की हित शिक्षा से न कभी, होवें श्रमण बहिर्गामी ।।
अन्वयार्थ-जब संसार की शिक्षा के लिये राजकुमार जैसे भी गुरु का इतना आदर करते हैं तब - पुण = फिर । जे = जो मुनि । सुयग्गाही (सुअग्गाही) = शास्त्र ज्ञान का अभ्यासी । अणंतहिय ( अणंतहिअ ) = तथा मोक्ष रूप अनन्त हित का । कामए = कामी है, वह विनय करे तो । किं = क्या बड़ी बात है । तम्हा आयरिया (आयरिआ) = इसलिये आचार्य महाराज । जं वए = जो आज्ञा दे । तं = उसका । भिक्खू नाइवत्तए = मुनि अतिक्रमण नहीं करे ।
हिन्दी पद्यानुवाद
भावार्थ-जब संसार की कला के लिये राजकुमार आदि भी शिक्षा गुरु का पूर्ण विनय करते हैं, त कल्याणार्थी साधु जो शास्त्र ज्ञान का अर्थी और अनन्त आत्म-हित की इच्छा वाला है, वह आचार्य का विनय करे तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है ? इसलिये भिक्षु को चाहिए कि धर्माचार्य जो आज्ञा दें, उसका थोड़ा भी अतिक्रमण नहीं करे। गुरु आज्ञा का अच्छी तरह मनोयोग से पालन करे ।
नीयं सिज्जं गई ठाणं, नीयं च आसणाणि य । नीयं च पाए वंदिज्जा, नीयं कुज्जा य अंजलिं ।।17।।
गुरु से हो शय्या नीची, गति स्थान और हो निम्नासन । अंजलि को नीची करे तथा, सिर झुका करे पद का वन्दन ।।
से
अन्वयार्थ-सिज्जं = विनीत शिष्य, शय्या । गइं ठाणं = गति स्थान । नीयं (नीअं) = गुरु नीचा करे। आसणाणि य (अ) = और आसन । नीयं च = और नीचा लगावे । नीयं च = और नीचे होकर । पाए = चरणों में । वंदिज्जा = वन्दन करे। नीयं य = और नीचे झुककर । अंजलिं = अंजलि । कुज्जा = करे अर्थात् नमस्कार करे ।
भावार्थ - विनयशील शिष्य गुरु के प्रति श्रद्धाभाव के कारण अपनी शय्या और स्थान
गुरु
की अपेक्षा