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[दशवैकालिक सूत्र भावार्थ-मानव अपने विनयशील स्वभाव से नरलोक को भी स्वर्ग-सा बना लेते हैं। अपने पूर्व जन्म में ऐसी ज्ञान, क्रिया एवं विनयपूर्वक की गई गुरु भक्ति से 33 धर्म बन्धु एक साथ, अपना आयुष्य पूर्ण करके स्वर्ग में बड़ी ऋद्धि के स्वामी त्रायत्रिंशक देव हुए । इन्द्र भी उनको गुरु के स्थानापन्न मानकर उनका आदर करता है। यह ज्ञानादि विनय का ही सुन्दर फल है।
जे आयरिय उवज्झायाणं, सुस्सूसा वयणंकरा ।
तेसिं सिक्खा पवड्ढंति, जलसित्ता इव पायवा ।।12।। हिन्दी पद्यानुवाद
आचार्य और उपाध्यायों के, सेवक आज्ञा पालक बनते ।
शिक्षा उनकी अतिशय बढ़ती, जैसे जल सिंचित तरु बढ़ते ।। अन्वयार्थ-जे = जो शिष्य । आयरिय = आचार्य । उवज्झायाणं = और उपाध्यायों की। सुस्सूसा = सेवा सुश्रुषा करने वाले हैं । वयणं करा = और उनकी आज्ञा का पालन करने वाले हैं। तेसिं = उनकी । सिक्खा = शिक्षा । जलसित्ता = जल से सींचे गये । पायवा इव = वृक्षों के समान । पवटुंति = बढ़ती रहती है।
भावार्थ-गुरु-सेवा का तात्कालिक फल बतलाते हुए कहते हैं कि जो शिष्य, धर्मगुरु आचार्य और ज्ञान दाता उपाध्यायों की तन-मन से सेवा करते हैं और उनकी आज्ञा का पालन करते हैं, उनकी शिक्षा वैसे ही बढ़ती जाती है जैसे जल से सींचे गये वृक्ष । वे फल-फूल, शाखा-प्रशाखाओं आदि से बढ़ते जाते हैं। ज्ञान वृद्धि में अपना ज्ञानावरणीय का क्षयोपशम एवं लगन से किया गया श्रम ही पर्याप्त नहीं होता, इन सबके साथ गुरुजनों की विनय-भक्ति की भी पूरी आवश्यकता होती है।
अप्पणट्ठा परट्ठा वा, सिप्पा णेउणियाणि य ।
गिहिणो उवभोगट्ठा, इहलोगस्स कारणा ।।13।। हिन्दी पद्यानुवाद
अपने या परहित कोई जो, व्यवहार शिल्प शिक्षा पाता।
वह गृहस्थ सुख भोग हेतु, देखो क्या क्या नहीं कर पाता ।। अन्वयार्थ-गिहिणो = गृहस्थ । इहलोगस्स = इस लोक के भौतिक सुखों की प्राप्ति के। कारणा = लिये । उवभोगट्ठा = तथा भोगोपभोग की सामग्री की उपलब्धि के लिये । अप्पणट्ठा = अपने लिये । वा परट्रा = अथवा परिजनों के लिये । सिप्पा = नाना प्रकार के शिल्प । णेउणियाणि य = और व्यवहार में निपुण बनने की शिक्षा ग्रहण करते हैं।