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________________ 230] [दशवकालिक सूत्र वैसा वचन और किसी का अहित हो ऐसी भाषा सर्वथा नहीं बोले । भाषा का इस प्रकार का विवेक रखने से परिवार में सदा शान्ति और प्रसन्नता बनी रहती है। दिटुं मियं असंदिद्धं, पडिपुण्णं वियं जियं। अयंपिरमणुव्विग्गं, भासं निसिर अत्तवं ।।49।। हिन्दी पद्यानुवाद मुनि दृष्ट अर्थमित नि:संशय, परिपुष्ट व्यक्त और वशवाली। उद्वेग रहित और ऊँच-नीच, बोले भाषा निजगुण वाली।। अन्वयार्थ-अत्तवं = आत्मवान्-ज्ञानादि गुणवान् मुनि । दिटुं = दृष्ट विषय वाली। मियं = परिमित शब्द वाली । असंदिद्धं = सन्देह रहित । पडिपुण्णं = प्रतिपूर्ण । वियं = व्यक्त । जियं = अत्यन्त जमी हुई। अयंपिरं = चपलता और । अणुव्विग्गं = उद्वेग रहित । भासं निसिर = भाषा बोले। भावार्थ-ज्ञानादि गुणों में रमण करने वाला आत्मवान् साधु बोलने के प्रसंग पर आँखों देखी या जो प्रामाणिक हो वैसी ही बात कहे, इधर-उधर से सुनी हुई बात को बढ़ा-चढ़ाकर नहीं कहे । सन्देह वाली द्वयार्थक भाषा नहीं बोले, किन्तु श्रोता बराबर समझ सके, ऐसे व्यक्त और परिमित शब्दों वाली भाषा बिना चपलता के उद्वेग रहित बोले । चंचलता या घबराहट की बात सुनने वाला चिन्ता में पड़ सकता है, अत: ऐसी भाषा भी कभी नहीं बोले। आयारपण्णत्तिधर, दिट्ठिवायमहिज्जगं । वायविक्खलियं णच्चा, न तं उवहसे मुणी ।।50।। हिन्दी पद्यानुवाद मुनि अंग उपांगों के धारक, और दृष्टिवाद पढ़ने वाले। न कभी हँसे ऐसे मुनि पर, जो स्खलित वचन भी कह डाले।। अन्वयार्थ-आयारपण्णत्तिधरं = आचार-भाषा के नियमों का जानकार । दिट्ठिवायमहिज्जगं = दृष्टिवाद का अध्ययन करने वाले भी। वायविक्खलियं = बोलते समय कदाचित् प्रमादवश उच्चारण में चूक जाए । णच्चा = ऐसा जानकर । तं = उसका । मुणी = मुनि । न उवहसे = उपहास नहीं करे । भावार्थ-बोलने की स्खलना पर मुनि उपहास नहीं करे। इस ओर ध्यान दिलाते हुए कहा गया है कि साधु भाषा के नियम और लिंग भेद आदि के ज्ञाता तथा काल, कारक, प्रकृति, प्रत्यय आदि पढ़ने वाला मुनि भी बोलते समय कभी चूक गया तो उसकी स्खलना जानकर मुनि उसका उपहास नहीं करे। टीकाकार ने आचार का
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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