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[दशवैकालिक सूत्र भावार्थ-जो शास्त्रार्थ के गम्भीर ज्ञाता हैं, उनकी पर्युपासना से ही अनुत्तर अर्थ की प्राप्ति होती है। तीर्थङ्करों के समय में जब किसी को दीक्षित किया जाता था, तब उसे ज्ञान-प्राप्ति के लिये स्थविरों के पास रक्खा जाता था। “थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाइ एकारस अंगाई अहिज्जइ।" इस पाठ से ज्ञानप्राप्ति के लिए बहुश्रुत-स्थविरों की उपासना करने की पद्धति प्राचीन काल से सिद्ध होती है। ज्ञानार्थी को उभयलोक में हितकारी और जिससे सुगति की प्राप्ति होती है, उस तात्पर्य के लिये जिज्ञासु को बहुश्रुत की उपासना करनी चाहिये।
हत्थं पायं च कायं च, पणिहाय जिइंदिए।
अल्लीणगुत्तो निसीए, सगासे गुरुणो मुणी ।।45।। हिन्दी पद्यानुवाद
हाथ पैर और काया को, मुनि संयम में जोड़े रखकर ।
गुरु के समीप में जा बैठे, मन वचन काय का रक्षण कर ।। अन्वयार्थ-हत्थं = हाथ । पायं च = और पैर । कायं च = और शरीर को । पणिहाय = संयम में रखकर । जिइंदिए = जितेन्द्रिय मुनि । अल्लीण = गुरु चरणों में मर्यादा से बैठने वाला । गुत्तो = गुरु आज्ञा में दत्तचित्त-गुप्त हो । मुणी = मुनि । गुरुणो सगासे = गुरु के समीप । निसीए = बैठे।
भावार्थ-गुरु के पास कैसे बैठना, इसकी विधि बतलाते हुए कहा है कि-विनीत शिष्य हाथ; पैर और शरीर, के अंगोपाङ्गों को संयम में रखकर जितेन्द्रिय गुरुचरणों में बैठने की मर्यादा को जानकर, यानी गुरु आज्ञा में दत्तचित्त होकर वचन गुप्ति एवं विधि पूर्वक गुरु के समीप बैठे।
न पक्खओ न पुरओ, नेव किच्चाण पिट्ठओ।
न य उरुं समासिज्जा, चिट्ठिजा गुरुणंतिए ।।46।। हिन्दी पद्यानुवाद
न अगल बगल या आगे में, ना उन्हें पीठ पीछे में कर ।
गुरु के समीप में बैठे मुनि, ना जंघा पर जंघा रखकर ।। अन्वयार्थ-पक्खओ = गुरु के पार्श्व भाग में यानी बराबर में । न = नहीं बैठे। पुरओ न = आगे भी नहीं बैठे। किच्चाण = आचार्यों के । पिट्ठओ = पीछे भी सटकर । नेव = नहीं बैठे । न य = और न । उरुं = उरु से उरु (जंघा)। समासिज्जा = लगा कर अर्थात् जंघा अड़ा कर । गुरुणंतिए = गुरु के समीप । चिट्ठिज्जा = बैठे।