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[दशवैकालिक सूत्र
अन्वयार्थ-तहेव = ऐसे ही । परस्सट्ठाए = किसी दूसरे के लिये । निट्ठियं = भूतकाल में किये गये । सावज्जं जोगं = पाप सहित कार्य । कीरमाणं त्ति = जो किया जा रहा हो। वा = या भविष्य में होने वाला । णच्चा = जानकर अच्छा है ऐसा। सावज्जं = सदोष वचन । मुणी = मुनि । न लवे = कभी नहीं बोले ।
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भावार्थ-मुनि हिंसा जनक प्रवृत्ति का कृत, कारित एवं अनुमोदन से त्यागी होता है । अत: किसी दूसरे के लिये किये गये अथवा जो किया जा रहा है वैसे क्रियमाण सावद्य हिंसा आदि पाप वाले कार्यों के लिये अच्छा किया इत्यादि प्रकार के सावद्य वचन मुनि नहीं बोले ।
हिन्दी पद्यानुवाद
सुकडे ति सुपक्के त्ति, सुछिण्णे सुहडे मडे । सुणिट्ठिए सुलट्ठेत्ति, सावज्जं वज्जए मुणी ।।41।
अन्वयार्थ-सुकडे त्ति (सुकडि त्ति) = यह भोजन अच्छा किया। सुपक्के त्ति (सुपक्कित्ति ) = यह अच्छा पकाया। सुछिण्णे = अच्छा भेदन किया । सुहडे = अच्छा हरण किया। मडे = अच्छा मरा । सुणिट्ठिए (सुनिट्ठिय) = अच्छा रस निष्पन्न हुआ। सुलट्ठेत्ति = बहुत सुन्दर है इस प्रकार के । सावज्जं = सावद्य वचनों का। मुणी = मुनि । वज्जए = वर्जन करे ।
2.
3.
4.
सुकृत सुपक्व सुच्छिन्न और, सुन्दर हृतमृत न कहे श्रमण । सुन्दर नष्ट तथा रुचिर, ऐसा सब पाप वचन वर्जन ।।
भावार्थ - (1) भोजन आदि के सम्बन्ध में साधु ऐसा नहीं कहे कि यह भोजन अच्छा बनाया, साग अच्छा पकाया, शाक-पत्रादि का अच्छा छेदन किया, करेले अथवा कैर का कड़वापन अच्छा दूर किया, सत्तू में घी अच्छा भरा, रंग-घृत आदि से यह साग अच्छा स्वादिष्ट व सुन्दर हो गया, इस प्रकार के सावद्य वचनों का मुनि वर्जन करे ।
(2)
क्रिया के सम्बन्ध में
1.
सुकडे त्ति-यह प्रीतिभोज या यह भोजन अच्छा किया ।
सुपक्केत्ति-यह शत पाक एवं सहस्र पाक तेल अच्छा पकाया ।
सुच्छिण्णे
-यह भयंकर वन अच्छा काटा ।
सुहडे- - इस कंजूस का धन चोर हरण कर ले गए यह अच्छा हुआ ।
मडे-वह दुष्ट मर गया, अच्छा हुआ।
5.