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________________ सातवाँ अध्ययन [179 एयं च अट्ठमण्णं वा, जं तु नामेइ सासयं । स भासं सच्चमोसं पि, तं पि धीरो विवज्जए।।4।। हिन्दी पद्यानुवाद पूर्वोक्त अन्य दोषों वाली, जो शाश्वत पद से दूर करे। ऐसी न मिश्र भाषा का भी, मुनि धीर कभी व्यवहार करे ।। अन्वयार्थ-एयं च = और सावद्य और कर्कशता वाले इस । अटुं = अर्थ को । वा = अथवा ऐसे। अण्णं = अन्य अर्थ को । जंतु = जो । सासयं = शाश्वत मोक्ष को । नामेइ = प्रतिकूल या बाधक है। स = वह साधु । सच्चमोसंपि = सत्यामृषा-मिश्र भी। भासं = दोष युक्त सत्य को । तं पि = उसका भी। धीरो = धैर्यवान् बुद्धिमान् साधु । विवज्जए = वर्जन करे। भावार्थ-बुद्धिमान् एवं धीर साधु सावद्य एवं कठोरता वाले इस वचन को अथवा इस प्रकार का अन्य भी वचन जो शाश्वत मोक्ष का बाधक है, वह मिश्र हो या अप्रिय सत्य हो उसका धीर साधक वर्जन कर दे। कभी ऐसी भाषा नहीं बोले । वितहपि तहा मुत्तिं, जं गिरं भासए नरो। तम्हा सो पुट्ठो पावेणं, किं पुण जो मुसं वए।।5।। हिन्दी पद्यानुवाद कल्पित असत्य मूर्ति जैसी, जिस भाषा को कोई बोले । उससे वह पाप बंध करता, फिर क्या? जो साफ झूठ बोले ।। अन्वयार्थ-वि तहं पि = असत्य भी। तहामुत्तिं = जो बाह्य वेश से सत्य आकार एवं स्वरूप वाली लगती हो । जं = जिस । गिरं = भाषा को । नरो = व्रती पुरुष । भासए = बोलता है। तम्हा = उस वचन को बोलने से । सो = वह वक्ता । पावेणं = पाप कर्म से । पुट्ठो = स्पृष्ट होता है। पुण (पुणं) = फिर । जो = जो व्यक्ति । मुसं = स्पष्ट झूठ बोलता है। किं वए = उसका तो कहना ही क्या । भावार्थ-जो सत्य के आकार वाला भी झूठ वचन कोई बोलता है, तो उस वचन को बोलने में वक्ता पाप कर्म से स्पृष्ट होता है। जैसे-स्त्री वेष में स्थित किसी पुरुष को कोई यह कहे कि यह महिला आ रही है, गा रही है आदि। ऐसे वचन बोलते हुए वक्ता पाप कर्म का बन्ध कर लेता है। तब जो साक्षात् झूठ वचन बोलता है, उसके पाप बन्ध में तो शंका ही क्या है ? तम्हा गच्छामो वक्खामो, अमुगं वा णे भविस्सइ। अहं वा णं करिस्सामि, एसो वा णं करिस्सइ ।।6।।
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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