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________________ छठा अध्ययन] हिन्दी पद्यानुवाद है घोर प्रमाद अब्रह्मचर्य, और दुष्परिणाम विधायक 1 आचरण न मुनि जग में करते, यह संयम धर्म विघातक है ।। अन्वयार्थ-भेयाययणवज्जिणो: | = चारित्र भंग के स्थानों का वर्जन करने वाले। मुणी = मुनिजन । लोए = लोक में। अबंभचरियं = अब्रह्मचर्य को । घोरं = भयंकर । पमायं = प्रमाद । दुरहिट्ठियं = एवं दुःखदायी मानकर । णायरंति = आचरण नहीं करते हैं । भावार्थ-संयम-धर्म को दूषित करने वाले कारणों का वर्जन करने वाले मुनि अब्रह्मचर्य को भयंकर प्रमाद और दुःख का हेतु जानकर सदा उसका वर्जन करते हैं । हिन्दी पद्यानुवाद मूलमेयमहम्मस्स, महादोससमुस्सयं । तम्हा मेहुणसंसग्गं, णिग्गंथा वज्जयंति णं ।।17। है अधर्म का मूल तथा, वर्धक है सब गुरु-दोषों का । अतएव साधु जन तज देते, संसर्ग यहाँ सब मैथुन का ।। [151 अन्वयार्थ - एयं : | = यह अब्रह्मचर्य । अहम्मस्स = अधर्म का । मूलं = मूल है। महादोससमुस्सयं = बड़े दोषों को बढ़ाने वाला है । तम्हा = इसलिये । णिग्गंथा = निर्ग्रन्थ साधु | मेहुणसंसग्गं = मैथुन के संसर्ग को । वज्जयंति णं = वर्जन करते हैं । हिन्दी पद्यानुवाद भावार्थ-अब्रह्मचर्य सब अधर्मों का मूल है और बड़े दोषों को बढ़ाने वाला है, ऐसा जानकर निर्ग्रन्थ मुनि मैथुन का वर्जन करते हैं। विडमुब्भेइमं लोणं, तिल्लं सप्पिं च फाणियं । ण ते संणिहिमिच्छंति, णायपुत्तवओरया ।।18।। विड लवण समुद्र लवण एवं, साधारण लवण तेल गुड़ भी । जो वीर-वचन में रत है मुनि, ना रक्खे इनको पास कभी ।। अन्वयार्थ-णायपुत्तवओरया = ज्ञात पुत्र के वचनों में अनुरक्त । ते = वे मुनि पंचम व्रत में। विडं = विड लवण । उब्भेइमं = समुद्री लवण | लोणं = सादा नमक । तिल्लं = तेल । सप्पिं = सर्पि-घी । च | = और। फाणियं = गीले गुड़ को । संणिहिं = रात्रि में रखना । ण = नहीं । इच्छंति = चाहते हैं । T
SR No.034360
Book TitleDash Vaikalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimalji Aacharya
PublisherSamyaggyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size3 MB
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