________________
छठा अध्ययन]
[147 भावार्थ-गाथा में बताया गया है कि यह आचार-गोचर छोटे-बड़े सब साधुओं के लिये पालन करने के योग्य है । बालक, वृद्ध और रोगी आदि सभी साधकों के लिये जो गुण निर्दोष पालन योग्य हैं, उनका भी यथातथ्य वर्णन श्रवण करो।
दस अट्ठ य ठाणाई, जाई बालोऽवरज्झइ ।
तत्थ अण्णयरे ठाणे, णिग्गंथत्ताउ भस्सइ ।।7।। हिन्दी पद्यानुवाद
जो बाल अठारह स्थानों में, अपराध धर्म का करता है।
उनमें से कहीं प्रमादी बन, निर्ग्रन्थ धर्म से गिरता है।। अन्वयार्थ-दस = दश । य = और । अट्ठ = आठ। ठाणाई = ये अठारह आचार के स्थान हैं। जाई = जिनमें । बालो = मन्दमति साधु । अवरज्झइ = दण्ड का भागी होता है। तत्थ = उन 18 स्थानों में। अण्णयरे ठाणे = किसी एक स्थान में भी चूक गया तो वह मुनि । णिग्गंथत्ताउ = निर्ग्रन्थत्व से यानी निर्ग्रन्थ धर्म से । भस्सइ = फिसल (भ्रष्ट हो) जाता है।
भावार्थ-निर्ग्रन्थ साधु-साध्वी के 18 आचार स्थान हैं। मंदमति इनमें से किसी एक स्थान पर भी विराधना कर गया तो निर्ग्रन्थ धर्म से यानी साधु-धर्म से भ्रष्ट हो जाता है।
वयछक्कं कायछक्कं, अकप्पो गिहिभायणं ।
पलियंक णिसिज्जा य, सिणाणं सोहवज्जणं ।।8।। हिन्दी पद्यानुवाद
षट्काय यतन, षट् व्रतपालन, अशनादिक अकल्प अरु गृहि भाजन ।
पर्यंक-निषद्या और स्नान, शोभा शृंगार करे वर्जन ।। अन्वयार्थ-वयछक्कं = छ: व्रत पालन । कायछक्कं = षट्काय का रक्षण। अकप्पो = अकल्पनीय वस्त्रादि । गिहिभायणं = गृहस्थ के भाजन । पलियंक = पलंग। णिसिज्जा = निषद्या । सिणाणं = स्नान करना । य = और । सोहवज्जणं = शरीर की शोभा व उसका शृंगार करने का वर्जन निर्ग्रन्थ का आचार है।
भावार्थ-1. अहिंसा, 2. सत्य, 3. अदत्तादान-विरमण, 4. ब्रह्मचर्य, 5. अपरिग्रह, 6. रात्रिभोजन विरमण व्रत, 7. पृथ्वीकाय रक्षण, 8. अप्काय रक्षण, 9. तेऊकाय रक्षण, 10. वायुकाय रक्षण, 11. वनस्पति काय रक्षण, 12. त्रसकाय रक्षण, 13. अकल्पनीय पिण्ड, शय्या, वस्त्र, पात्र आदि नहीं लेना,