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[दशवैकालिक सूत्र धम्मस्स फलं मोक्खो, सासयमयलं सिवं अणाबाहं।।
तमभिप्पेया साहू तम्हा, धम्मत्थ कामत्ति ।। नि.265 ।। अर्थात् धर्म का फल मोक्ष है, जो शाश्वत, अनुपम, शिव-उपद्रव रहित और निराबाध है। साधु उसकी इच्छा रखने वाले हैं, इसलिये इस अध्ययन का नाम 'धर्मार्थकाम' भी रखा गया है। इसमें कुल 69 गाथाएँ हैं।
साधक हिंसा, मृषावाद, मैथुन और रात्रि-भोजन आदि का त्याग क्यों करे, इसकी सहेतुकता बताकर इस अध्ययन में व्रत ग्रहण की शिक्षा दी गई है। जैसे-'अविस्सासो य भूयाणं, तम्हा मोसं विवज्जए' मृषावाद लोगों में अविश्वास का कारण है, इसलिये इसका वर्जन करना चाहिये।
इसी प्रकार अन्य स्थानों के विषय में भी बताया गया है। अध्ययन बहुत ही मननीय और पुनः पुनः पठनीय है। पंचम अपरिग्रह व्रत में घी, तेल, गुड़ आदि के संचय करने का ही नहीं, इसकी सन्निधि की इच्छा का भी निषेध किया गया है। परिग्रह-त्यागी के पास वस्त्र-पात्र-कम्बल आदि कैसे? इसके उत्तर में यहाँ कहा गया है-तं पि सम-लज्जट्टा, धारन्ति परिहरन्ति य (दशवै. गाथा 20)।
अर्थात् वस्त्र, पात्र आदि भी निर्ग्रन्थ, संयम और लज्जा के लिये ही रखते और उपयोग में लेते हैं। इसलिये यह परिग्रह नहीं है। "मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, इइ वुत्तं महेसिणा", क्योंकि मूर्छा को ही परिग्रह कहा गया है। साधु सर्वत्र संयम की रक्षा के निमित्त वस्त्र-पात्र आदि उपधि को ग्रहण करते हैं। वे अपने शरीर पर भी ममत्व भाव का सेवन नहीं करते । छठे रात्रि-भोजन विरमण स्थान में रात्रि-भोजन के ग्रहण के दोष को बतलाकर उसका निषेध करने के साथ मुनि की चर्या का उल्लेख करते हुए कहा है-“अहो णिच्चं तवोकम्मं सव्वबुद्धेहि वण्णियं । जा य लज्जा समावित्ती एगभत्तं च भोयणं।"
___ अर्थात् साधु का आश्चर्यजनक नित्य तप है, संयम के अनुकुल वृत्ति रखना और एक भक्त का भोजन । (विशेष विवरण टिप्पणी में देखें)।
नाण-दंसण-संपन्नं, संजमे य तवे रयं ।
गणिमागमसंपन्नं, उज्जाणम्मि समोसढं ।।1।। हिन्दी पद्यानुवाद
ज्ञान और दर्शन वाले, संयम और तप के जो धारक।
उद्यान पधारे गणिप्रवर, आगम विद्या के थे ज्ञायक ।। अन्वयार्थ-णाणदंसणसंपन्नं = सम्यक् ज्ञान और दर्शन से युक्त । संजमे = सतरह प्रकार के संयम । य = और । तवे रयं = अन्तरंग और बहिरंग तप में रमण करने वाले । आगमसंपन्नं = आगमों के ज्ञाता । गणिं = आचार्य देव । उज्जाणम्मि = नगरी के उद्यान में । समोसढ़ = पधारे।