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[दशवकालिक सूत्र = अग्राह्य । भवे = होता है, अत: साधु । दितियं = देने वाली से । पडियाइक्खे = निषेध पूर्वक कहे कि । मे = मुझको । तारिसं = वैसा आहार लेना । ण कप्पइ = नहीं कल्पता है।
भावार्थ-वह आहार-पानी साधुओं के लिये अग्राह्य होता है। इसलिये साधु देने वाली से कहे कि वैसा आहार उसे नहीं कल्पता है।
हुज्ज कटुं सिलं वा वि, इट्टालं वा वि एगया।
ठवियं संकमट्ठाए, तं च होज्ज चलाचलं ।।65।। हिन्दी पद्यानुवाद
लकड़ी शिला ईंट रक्खी हो, आने जाने के हेतु कभी।
यदि वह चलने फिरने से, डगमग करने लग जाय कभी।। अन्वयार्थ-एगया = कभी वर्षा आदि के समय में । कटुं = काष्ठ । वा वि = अथवा । सिलं = पत्थर की शिला । वा वि = अथवा । इट्ठालं = ईंट के टुकड़े। संकमट्ठाए = पानी लाँघने के लिए। ठवियं = मार्ग में रखे। हुज्ज = हों । तं च = और वह । चलाचलं होज्ज = चल-विचल अर्थात् अस्थिर हो।
भावार्थ-कभी वर्षाकाल में ऐसा रास्ता हो कि जहाँ लकड़ी, शिला अथवा ईंटों के रखे हों और वे चल-विचल हों-स्थिर नहीं हों।
ण तेण भिक्खू गच्छिज्जा, दिट्ठो तत्थ असंजमो।
गंभीरं झुसिरं चेव, सव्विंदिय-समाहिए ।।66।। हिन्दी पद्यानुवाद
प्रभु ने देखा वहाँ असंयम, उस पर मुनिवर ना गमन करे।
गहरे पोले पथ पर भी, ना दान्त सन्त संचार करे ।। अन्वयार्थ-सव्विंदियसमाहिए = सब इन्द्रियों को वश में रखने वाला। भिक्खू = भिक्षु-साधु । तेण = उस मार्ग से । ण = नहीं । गच्छिज्जा = जावे, क्योंकि । तत्थ = वहाँ । असंजमो = जीवों का असंयम । दिट्ठो = देखा गया है (तथा जो मार्ग) । गंभीरं चेव = गम्भीर और । झुसिरं = जो मार्ग पोला हो ।
भावार्थ- इन्द्रियों को वश में रखने वाला साधु वैसे मार्ग में नहीं जावे, जहाँ षट्काय जीवों का असंयम देखा गया है। क्योंकि वह मार्ग गहरा और पोल वाला है, अत: वहाँ रहे हुए सूक्ष्म जीव देखे नहीं जा सकते और चूँकि वे देखे नहीं जा सकते इसलिये उनकी विराधना की सम्भावना बनी रहती है।
माया
वाइटा कटुकड़े लाँघने को