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[दशवैकालिक सूत्र
घर अथवा शौचालय की ओर नहीं देखे । क्योंकि ये स्थान रागोत्पत्ति के कारण और मन में चंचलता उत्पन्न
करने वाले हैं।
हिन्दी पद्यानुवाद
दग - मट्टिय - आयाणे, बीयाणि हरियाणि य । परिवज्जंतो चिट्ठिज्जा, संव्विंदिय समाहिए । 126 ।।
जल मिट्टी लाने का पथ जो, और हरित बीज का भी वध है। हो खड़ा श्रमण उससे हटकर, कारण इन्द्रिय-संयम व्रत है ।।
अन्वयार्थ-सव्विंदिय = सब इन्द्रियों से । समाहिए = समाधि वाला मुनि । बीयाणि = धान्य आदि के बीज । हरियाणि = हरी दूब आदि । य = और। दग मट्टिय = सचित्त जल और मिट्टी के । आयाणे = स्थान को । परिवज्जंतो = वर्जन करता हुआ। चिट्ठिज्जा ( चिट्ठेज्जा) = यतना से खड़ा रहे ।
हिन्दी पद्यानुवाद
भावार्थ-साधु गृहस्थ के घर में सचित्त जल, मिट्टी रखने के स्थान तथा धान्य के बीज और हरे पत्ते आदि को बचाते हुए सभी इन्द्रियों को वश में रखते हुए यतना से खड़ा रहे। साधु का शान्त खड़ा रहना भी गृहस्थ को मूक भाषा में उपदेश का कारण होता है।
तत्थ से चिट्ठमाणस्स, आहरे पाणभोयणं । अकप्पियं ण गिहिज्जा, पडिगाहिज्ज कप्पियं ॥27॥
उस मुनि के हित में खड़े वहाँ, दाता जो देवे पान - अशन । यदि अकल्प्य है तो ले न उसे, जो कल्प्य उसी को करे ग्रहण ।। अन्वयार्थ-तत्थ = उस मर्यादित भूमि पर । चिट्ठमाणस्स = खड़े रहे हुए। से = उस मुनि को, गृहपति । पाण भोयणं = आहार- पानी । आहरे = लाकर दें । अकप्पियं = अकल्पनीय आहार आदि को । ण गिण्हिज्जा = ग्रहण नहीं करे, किन्तु । कप्पियं = कल्पनीय हो तो । पडिगाहिज्ज = ग्रहण कर ले।
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भावार्थ-घर में आये हुये साधु को गृहस्थ आहार- पानी लाकर देने लगे तो उनमें जो मुनि धर्म की मर्यादा के अनुसार ग्राह्य हो उसी को ग्रहण करे। जो ग्राह्य नहीं हो उसको ग्रहण नहीं करे ।
आहरंती सिया तत्थ, परिसाडिज्ज भोयणं ।
दिंतियं पडियाइक्खे, ण मे कप्पइ तारिसं ।।28।।