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[दशवैकालिक सूत्र हिन्दी पद्यानुवाद
जिस कोठे में हों सचित्त, बिखरे बहुबीज कुसुम नाना।
जो गीला सद्य-लेपों से, मुनि देख करे वर्जित जाना ।। अन्वयार्थ-जत्थ = जिस । कुट्ठए (कोट्ठए) = कोठे में । पुप्फाई = फूल । बीयाई = धान्यादि के बीज । विप्पइण्णाई = इधर-उधर बिखरे हों। अहुणोवलित्तं = तथा जो तत्काल का लीपा हुआ हो। उल्लं= और गीला हो, ऐसे स्थान को । दळूणं = देखकर । परिवज्जए = उस स्थान को साधु वर्जित करे अर्थात् वहाँ भिक्षा को न जावे।
भावार्थ-षट्काय जीवों का रक्षक साधु जहाँ पर सचित्त फूल, धान्य आदि के बीज घर में बिखरे पड़े हों तथा तत्काल का लीपा हुआ जिस घर का आँगन गीला हो, ऐसे स्थान का साधु वर्जन कर दे।
एलगं दारगं साणं, वच्छगं वावि कुट्टए।
उल्लंघिया ण पविसे, विउहित्ताण व संजए ।।22।। हिन्दी पद्यानुवाद
भेड़ श्वान बछड़ा बालक, या ऐसे ही हों जीव जहाँ।
ना लाँघ और न हटा उनको, मुनि कभी प्रवेश न करे वहाँ।। अन्वयार्थ-कुट्टए (कोट्ठए) = घर में प्रवेश करते द्वार पर । एलगं = भेड़ या बकरा । दारगं = बालक-बालिका । साणं = अथवा कुत्ता हो । वच्छगं = गाय का बछड़ा हो । वावि = अथवा. अन्य भी कोई प्राणी हो । उल्लंघिया = उनको लाँघ करके । व विउहित्ताणं = या उनको हटा करके । संजए = संयमी साधु । ण पविसे = प्रवेश नहीं करे।
भावार्थ-घर के बाहर भेड़, बकरी, बालक, कुत्ता या बछड़ा बैठा हो, अथवा पाड़ा-पाड़ी आदि कोई अन्य प्राणी मार्ग में हों तो उनको लाँघ करके साधु को घर में नहीं जाना चाहिये । डर के मारे भेड़, बछड़े आदि भग जाएँ और कुत्ता काट खाए तो आत्म-विराधना और संयम-विराधना का दोष लगना सम्भव है।
असंसत्तं पलोइज्जा, णाइदूरावलोयए।
उप्फुल्लंण विणिज्झाए, णिअट्टिज्ज अयंपिरो ।।23।। हिन्दी पद्यानुवाद
आसक्ति रहित होकर देखे, अति दूर नजर दे नहीं देखे। अप्राप्त दशा में लौट चले, उत्फुल्ल भाव से ना देखे ।।