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{VIII} प्रवजित होना चाहते हैं, उन्हें श्रीकृष्ण वासुदेव प्रव्रज्या लेने की आज्ञा देते हैं, जो भी प्रव्रजित होगा उसके पीछे घर में रहे हुए बाल, वृद्ध, रोगी आदि की सम्पूर्ण व्यवस्था श्रीकृष्ण अपनी तरफ से करेंगे, और दीक्षार्थियों का दीक्षा महोत्सव बड़े ठाट-बाट के साथ स्वयं श्रीकृष्ण करेंगे। यह है संयम और संयम ग्रहण करने वालों का अनुमोदन। ___ (13) अर्जुन अनगार के अध्ययन से यह प्रत्यक्ष सिद्ध है कि जिनशासन में जाति का कोई बन्धन नहीं है, न ही किसी विशिष्ट विद्वत्ता की आवश्यकता है। पापी से पापी भी परमात्मा के श्रीचरणों में अपने को समर्पित कर परम पावन बनकर स्वयं परमात्म पद पर अधिष्ठित हो सकता है।
(14) सुदर्शन मात्र प्रियधर्मी नहीं, वरन् दृढ़ धर्मी श्रावक थे। प्रभु नगर के बाहर गुणशील उद्यान में विराजमान हैं, नगर के द्वार बंद हैं। अनन्त करुणासागर के दर्शन की सबके मन में उत्कण्ठा है, पर साहस कोई नहीं कर पा रहा है। सुदर्शन माता-पिता को समझा बुझाकर प्रभु के द्वार की ओर बढ़ चला। दानव दौड़ा आया, दानव को आते देख श्रमणोपासक सागारी संथारा ग्रहण कर ध्यानस्थ हो गया। दानव ने पूरा जोर लगाया पर कुछ न कर सका, हार गया, अर्जुन का शरीर छोड़कर भाग गया। कैसा भी उपसर्ग क्यों न हो धैर्य व धर्म से समस्त उपसर्ग शांत हो जाते हैं। जिसके हृदय में वीतराग देव व धर्म के प्रति अटल आस्था हो, जिसका जीवन शील-सौरभ से सवासित हो, भला दानव तो क्या यमराज भी उसका क्या बिगाड़ सकता है?
(15) एवंता के द्वारा गौतम स्वामी को अंगुली पकड़ कर घर की ओर ले जाते हुए छोटे-छोटे प्रश्न पूछे गये जो उस बालक में रही हुई विराट् आत्मा व माता-पिता से प्राप्त सुसंस्कारों की छवि को प्रकट करती है। साथ ही इससे मुख-वस्त्रिका की ऐतिहासिकता सिद्ध होती है। गौतम के एक हाथ में पात्र है, दूसरे हाथ की अंगुलि अतिमुक्त ने पकड़ रखी है, श्रमण खुले मुँह नहीं बोलता है, क्योंकि भगवती सूत्र खुले मुंह बोलने से सावध भाषा मानता है। फिर भला ज्ञान-क्रिया के अनुपम संगम, प्रभु के ज्येष्ठ व श्रेष्ठ शिष्य, चौदह हजार श्रमणों के नायक गौतम गणधर बिना मुखवस्त्रिका खुले मुँह कैसे बोलते? अत: मुखवस्त्रिका उनके मुख पर बंधी हुई थी, यह सिद्ध है।
___ (16) श्रेणिक महाराजा की काली, सुकाली, महाकाली आदि रानियाँ कितनी सुंदर व सुकुमार थीं, पर उन्होंने कभी यह विचार नहीं किया कि मैं सुकुमार हूँ, मुझसे तपस्या नहीं होती। मैं रुक्ष संयम, परीषह एवं उपसर्गों का पालन नहीं कर सकती। उन्होंने शक्ति का गोपन नहीं किया (नो निण्हविज्ज वीरियं) शक्ति होते हुए भी संयम व तप में पुरुषार्थ न करना चोरी कही गई है। उन राजमहिषियों ने स्वाध्याय व तप की भट्टी में होमकर अपने आप लिया। उन राजरानियों ने कनकावली.रत्नावली आदि तपों के द्वारों से अपने जीवन को देदीप्यमान करते हुए मुक्ति के साम्राज्य में प्रवेश प्राप्त कर लिया।