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[अंतगडदसासूत्र जाता है। अंतगड़सूत्र में वर्णन है कि अतिमुक्त कुमार ने भगवान गौतम को कहा-'एह णं भंते! तुब्भे जण्णं अहं तुब्भे भिक्खं दवावेमि' अतिमुक्त कुमार गौतम स्वामी को उनकी अंगुली पकड़कर अपने घर ले गए, जहाँ माता ने विपुल अशनादि बहराकर प्रतिलाभित किया।
प्रश्न 66. अन्तकृद्दशा का क्या तात्पर्य है?
उत्तर-जिन महापुरुषों ने अनादिकालीन जन्म-मरण की भव परम्परा का हमेशा के लिए अंत कर दिया है। जिन्होंने शाश्वत सिद्धि (मोक्ष) को प्राप्तकर लिया है, ऐसे महापुरुषों की जीवन गाथा का वर्णन अन्तकृद्दशा कहलाता है।
प्रश्न 67. अन्तकृद्दशांग सूत्र में किन-किन महापुरुषों का वर्णन है?
उत्तर-अन्तकृद्दशांग सूत्र में भगवान अरिष्टनेमि के शासनवर्ती 51 साधकों का (जिनमें 41 साधु, 10 साध्वियाँ हैं) तथा भगवान महावीर के शासनवर्ती 39 साधकों का (जिनमें 16 साधु, 23 साध्वियाँ हैं) इस प्रकार कुल 90 साधकों का वर्णन है। 90 ही साधकों ने उसी भव में संयम अंगीकार किया। ज्ञान, दर्शन, चारित्र की आराधना कर आयु के अंतिम अन्तर्मुहर्त में घाति कर्मों को क्षय कर केवलज्ञान प्राप्त किया तथा अन्तर्मुहर्त पश्चात् ही अघाति कर्मों को भी क्षयकर मोक्ष को प्राप्तकर लिया।
प्रश्न 68. अन्तकृद्दशांग सूत्र के साधकों से क्या-क्या प्रेरणाएँ प्राप्त होती हैं?
उत्तर-(1) प्रथम वर्ग में वर्णित गौतमकुमार के जीवन से भोगों की निस्सारता समझ कर संयमी-जीवन जीने तथा अंगशास्त्रों का मर्मस्पर्शी अध्ययन करने की प्रेरणा प्राप्त होती है।
(2) तृतीय वर्ग के आठवें अध्ययन में वर्णित छ: अणगारों को महारानी देवकी जिस श्रद्धा-भक्ति व उल्लास भाव से चारों प्रकार के आहार से प्रतिलाभित करती है, उसी प्रकार अवसर मिलने पर हमें भी श्रमण-श्रमणियों को भक्तिबहुमान पूर्वक आहारादि बहराने का लाभ प्राप्त करना चाहिए।
(3) जिस प्रकार से श्रीकृष्ण वासुदेव अपनी माताओं को प्रतिदिन चरण-वन्दना करने जाते, उसी प्रकार हमें भी बड़ों की, गुरुजनों की चरण-वन्दना करनी चाहिए।
(4) श्रीकृष्ण वासुदेव होते हुए भी उन्होंने मातृभक्ति का आदर्श उपस्थित किया, माता की चिन्ताओं को दूर करने का प्रयास किया, उसी प्रकार हमें भी माता-पिता की सेवा में समर्पित रहना चाहिए।
(5) श्रीकृष्ण वासुदेव ने अरिहंत अरिष्टनेमि के श्रीमुख से संयम की महत्ता जानी, तथा स्वयं निदानकृत होने से व्रत-नियम अंगीकार नहीं कर सकने की बात भी जानी तो संयम मार्ग में आगे बढ़ने वालों को अपूर्व सहायता प्रदान कर धर्म दलाली का अनुपम-अद्वितीय लाभ (तीर्थङ्कर गोत्र का उपार्जन) प्राप्त कर लिया। हमें भी धर्म-साधना में स्वयं आगे बढ़ते हुए अन्यों को आगे बढ़ाने में सहयोगी बनना चाहिए। साधकों की ज्ञान-दर्शन-चारित्र की आराधना निर्मल हो सके, उसमें अन्तर्मन से सकारात्मक सहयोग प्रदान करना चाहिए।
(6) महामुनि गजसुकुमालजी का जीवन हमें प्रेरित करता है कि स्वकृत शुभाशुभ कर्म उदय में आने पर व्यक्ति को समभाव रखना चाहिए। लाखों-करोड़ों भवों के कर्म भी उदय में आ सकते हैं। स्वकृत कर्म ही उदय में आते हैं, अत: समभाव से भोगे बिना उनसे आत्यन्तिक निवृत्ति नहीं हो सकती।
(7) अर्जुन अणगार की क्षमा, सहनशीलता भी हमें कषाय विजय की निरंतर प्रेरणा प्रदान करती है। सुदर्शन श्रमणोपासक की धर्मदृढ़ता हमें अविचल अवस्था, जिनशासन के प्रति प्रीति एवं संघ समर्पण की अनूठी प्रेरणा प्रदान करती है। मृत्यु के मुँह में पहुंचने पर भी व्रत-पालन की दृढ़ता मननीय एवं भावना भरती है।