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प्रश्नोत्तर]
263} उत्तर-यह कथन सही है। क्योंकि वासुदेव निदानकृत होते हैं। वासुदेव मरकर नरक में जाते हैं (सव्वे वि य णं वासुदेवा पुव्वभवे नियाणकडा) अत: निश्चित रूप से वासुदेव अनन्तानुबंधी कषाय के उदय में ही अगले भव की आयु बाँधते हैं। जो जीव एक बार भी दूसरे गुणस्थान से ऊपर (सम्यक्त्व अवस्था में) आयु का बंध कर ले तो नियमा आराधक हो जाता है। भगवती सूत्र शतक 8 उद्देशक 10 के अनुसार उसके मनुष्य एवं वैमानिक देव इन दो दण्डकों को छोड़कर शेष 22 दण्डकों के लिए ताला लग जाता है, वह अधिकतम 15 भवों में मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
प्रश्न 54. दीक्षा की आज्ञा घर के मुखिया से ली जाती है। क्या स्वयं मुखिया बिना किसी की आज्ञा से प्रव्रजित हो सकता है?
उत्तर-अंतगड़ सूत्र में वर्णित है कि कृष्ण वासुदेव की घोषणा से अनेकों ने दीक्षा ली। अलक्ष राजा ने ज्येष्ठ पुत्र को गद्दी पर बिठाकर दीक्षा ली। काली आदि रानियों ने कुणिक राजा की आज्ञा लेकर दीक्षा ग्रहण की।
भगवती शतक 5 उद्देशक 33 में उल्लेख है कि ऋषभदत्त और देवानन्दा ने देशना सुनने के तत्काल पश्चात् ही दीक्षा धारण कर ली, इससे स्पष्ट है कि मुखिया बिना किसी के आज्ञा के भी प्रव्रजित हो सकता है। वर्तमान समय में मुखिया के दीक्षा प्रसंग में पुत्रादि की आज्ञा भी ली जाती है जो व्यावहारिक दृष्टि से उचित है।
प्रश्न 55. क्या यक्ष भी दिव्य सत्य होता है?
उत्तर-लोकोपचार रूप अथवा लौकिक मान्यता से उसे दिव्य सत्य माना है। अंतगड़ आदि आगमों में लौकिक मान्यता से यक्ष को दिव्य सत्य कहा है। मुद्गरपाणि यक्ष का अर्जुन मालाकार के शरीर में प्रवेश करना प्रमाण है, अत: यह कथन लौकिक मान्यता के अनुसार है। जिससे लौकिक मान्यता की पूर्ति हो सके जो दिव्य एवं सत्य प्रभाव वाला हो, ऐसे यक्ष को दिव्य सत्य कहा है।
प्रश्न 56. क्या दृढ़धर्मी व्रतधारी पर देवशक्ति का प्रभाव नहीं चल सकता?
उत्तर-उक्त कथन को एकान्त सत्य नहीं कहा जा सकता। किसी अपेक्षा से देवशक्ति का प्रभाव हो भी सकता है, किसी अपेक्षा से नहीं भी। पूर्वबद्ध असाता जन्य कर्मों का उदय होने पर छद्मस्थ काल में तीर्थङ्कर भगवन्तों को भी देवता उपसर्ग दे सकते हैं। उपासकदशांगसूत्र में वर्णित कामदेव के शरीर में वेदना भी इसका उदाहरण है। 12वीं भिक्षु प्रतिमा के आराधक को भी उपसर्ग आ सकता है, विचलित हो सकता है।
उपासकदशांगसूत्र के अध्ययन 3, 4, 5 व 7 में वर्णित श्रावक देवता के उपसर्ग में विचलित हो गए थे। तथारूप गाढ़े कर्मों का बंधन नहीं होने पर देवता दृढ़धर्मियों के चरणों में नतमस्तक होते आये हैं। दशवैकालिक, उत्तराध्ययन आदि आगम इसके ज्वलंत प्रमाण है।
प्रश्न 57. अपूर्वकरण में क्या होता है, इसकी प्राप्ति के लिए क्या-क्या अनिवार्य करण (साधन) अपेक्षित हैं?
उत्तर-अपूर्वकरण के परिणामों में विशेष विशुद्धि होती है। अपूर्वकरण सम्यक्त्व प्राप्ति के पूर्व पहले गुणस्थान के अंत में भी होता है तथा आठवें गुणस्थान में श्रेणी करते समय भी होता है। प्रति समय अनंत गुणी विशुद्धि के लिए अपूर्वअपूर्व परिणाम प्राप्त होना अपूर्वकरण है।
अंतगड़सूत्र 3/8 में गजसुकुमाल मुनि के वर्णन में उल्लेख है-"सुभेणं परिणामेणं पसत्थऽज्झवसाणेणं तयावरणिज्जाणं कम्माणं खएणं कम्मरय विकिरणकरं अपुव्वकरणं।” अर्थात् शुभ परिणाम, प्रशस्त अध्यवसाय से तदावरणीय कर्म का क्षय होने पर 8वें गुणस्थान वाले जीव को अपूर्वकरण प्राप्त होता है।