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षष्ठ वर्ग - सोलहवाँ अध्ययन ]
169 } काल उस समय में, समणे भगवं महावीरे जाव = श्रमण भगवान महावीर प्रभु यावत्, विहरइ = विचरण करते हुए उद्यान में पधारे । परिसा णिग्गया = परिषद् वन्दन करने को निकली। तए णं अलक्खे राया इमीसे = तब राजा अलक्ष भगवान के, कहाए लद्धढे समाणे = पधारने का संवाद सुनकर बहुत, हट्टतुट्ठ जहा कूणिए जाव = प्रसन्न हुआ और कूणिक के समान, पज्जुवासइ, = यावत् भगवान की सेवा करने लगा। धम्मकहा प्रभु ने धर्मकथा कही। तए णं से अलक्खे राया = तब अलक्ष राजा ने, समणस्स भगवओ महावीरस्स = श्रमण भगवान महावीर, अंतिए जहा उदायणे तहा = के पास उदायन राजा की तरह दीक्षा, णिक्खंते, नवरं जेट्ठ पुत्तं = ग्रहण की । विशेषत: ज्येष्ठ पुत्र को, रज्जे अहिसिंचइ = राज्य पर आरूढ़ किया, एक्कारस अंगाई = उन्होंने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया, बहुवासा परियाओ, = बहुत वर्षों तक चारित्र पालकर, जाव विपुले सिद्धे = यावत् विपुल गिरि पर सिद्ध हुए । एवं खलु जम्बू ! = इस प्रकार हे जम्बू!, समणेणं जाव = श्रमण भगवान महावीर ने यावत्, छट्ठमस्स वग्गस्स अयमढे पण्णत्ते = षष्ठ वर्ग का यह अर्थ कहा है।
भावार्थ-श्री जम्बू-“हे भगवन् ! पन्द्रहवें अध्ययन का भाव सुना । अब सोलहवें अध्ययन में प्रभु ने क्या अर्थ कहा है ? कृपा कर बताइये।"
श्री सुधर्मा स्वामी-“हे जम्बू! उस काल उस समय वाराणसी नगरी में काम महावन नामक उद्यान था। उस वाराणसी नगरी का अलक्ष नाम का राजा था।
उस काल उस समय श्रमण भगवान प्रभु महावीर यावत् उस उद्यान में पधारे । जन परिषद् प्रभु-वन्दन को निकली । राजा अलक्ष भी प्रभु महावीर के पधारने की बात सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ और कोणिक राजा के समान वह भी यावत् प्रभु की सेवा उपासना करने लगा। प्रभु ने धर्मकथा कही।
तब अलक्ष राजा ने श्रमण भगवान महावीर के पास ‘उदायन' की तरह श्रमण-दीक्षा ग्रहण की।
विशेष बात यह रही कि उन्होंने अपने ज्येष्ठ पुत्र को राज्य सिंहासन पर बिठाया । ग्यारह अंगों का अध्ययन किया । बहुत वर्षों तक श्रमण चारित्र का पालन किया यावत् विपुलगिरि पर्वत पर जाकर सिद्ध हुए। इस प्रकार “हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने छट्टे वर्ग का यह अर्थ कहा है।"
।। इइ सोलसममज्झयणं-सोलहवाँ अध्ययन समाप्त ।।
।। इइ छट्ठो वग्गो-षष्ठ वर्ग समाप्त ।।