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[अंतगडदसासूत्र पश्यति, दृष्ट्वा आशुरक्त: तं पलसहस्रनिष्पन्नम् अयोमयम् मुद्गरम् उल्लालयन्
उल्लालयन् यत्रैव सुदर्शन: श्रमणोपासकः तत्रैव प्राधारयद् गमनाय ।।10।। ___ अन्वायार्थ-तए णं तं सुदंसणं सेटिं = तदनन्तर उस सुदर्शन सेठ को, अम्मापियरो जाहे नो संचायंति, = माता-पिता जब नहीं समझा सके, बहूहिं आघवणाहिं 4 जाव परूवेत्तए = अनेक प्रकार की युक्तियों से, तए णं से अम्मापियरो ताहे अकामया = तब माता पिता ने अनिच्छापूर्वक ही, चेव सुदंसणं सेटिं एवं वयासी- = सुदर्शन सेठ को इस प्रकार कहा-, अहासुहं देवाणुप्पिया! = जैसे सुख हो वैसे ही करो । तए णं से सुदंसणे सेट्ठि = तब उस सुदर्शन सेठ ने, अम्मापिइहिं अब्भणुण्णाए समाणे = माता-पिता की आज्ञा पाकर, ण्हाए सुद्धप्पावेसाइं जाव सरीरे, सयाओ गिहाओ = स्नान किया और धर्मसभा में जाने योग्य शुद्ध वस्त्र यावत्, पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता = धारण किये यावत् अपने घर से निकला, निकलकर, पायविहारचारेणं रायगिह नयरं मज्झं मज्झेणं णिग्गच्छइ = पैदल चलते हुए ही राजगृह नगर के मध्य से होता हुआ निकला, णिग्गच्छित्ता मोग्गरपाणिस्स जक्खस्स जक्खाययणस्स = निकलकर मुद्गरपाणियक्ष के यक्षायतन के, अदूरसामंतेणं जेणेव = पास से होते हुए जहाँ पर, गुणसिलए
चेइए जेणेव = गुणशील नामक उद्यान और जहाँ, समणे भगवं महावीरे तेणेव = श्रमण भगवान महावीर हैं, पहारेत्थ गमणाए = उस ओर जाने लगा। तए णं से मोग्गरपाणिजक्खे = तब उस मुद्गरपाणियक्ष ने, सुदंसणं समणोवासयं = सुदर्शन श्रमणोपासक को, अदूरसामंतेणं वीईवयमाणं = समीप से ही जाते हुए, पासइ, पासित्ता आसुरत्ते = देखा देखकर शीघ्र क्रुद्ध हुआ और, तं पलसहस्स-णिप्फण्णं अयोमयं = उस हजारपल भारवाले लोहे के, मोग्गरं उल्लालेमाणे उल्लालेमाणे = मुद्गर को घुमाते घुमाते, जेणेव सुदंसणे समणोवासए = जहाँ सुदर्शन श्रमणोपासक था, तेणेव पहारेत्थ गमणाए = वहाँ चलकर आने लगा ।।10।।
भावार्थ-उस सुदर्शन सेठ को माता-पिता जब अनेक प्रकार की युक्तियों से भी नहीं समझा सके, तब माता-पिता ने अनिच्छा पूर्वक इस प्रकार कहा-“हे पुत्र ! फिर जिस प्रकार तुम्हें सुख उपजे वैसा करो।"
इस प्रकार सुदर्शन सेठ ने माता-पिता से आज्ञा प्राप्त करके स्नान किया और धर्मसभा में जाने योग्य शुद्ध वस्त्र धारण किये। फिर अपने घर से निकला और पैदल ही राजगृह नगर के मध्य से चलकर मुद्गरपाणि यक्ष के यक्षायतन के न अति दूर से और न अति निकट से ही होते हुए गुणशील उद्यान की ओर, जहाँ श्रमण भगवान महावीर विराजित थे, निकलने लगा।
सुदर्शन सेठ को अपने यक्षायतन के पास से निकलते हुए देखकर वह मुद्गरपाणि यक्ष बड़ा क्रुद्ध हुआ और क्रुद्ध होकर उस हजार पल के वजन वाले लोह-मुद्गर को घुमाते हुए उसकी ओर दौड़ा।